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________________ द्वितीय अध्याय [ २१ मिथ्यादर्शन,' अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व और कृष्ण, नील, कापोत, पीत पद्म शुक्ल ये छह लेश्याएं इस तरह सबमिलाकर औदयिक भावके इक्कीस भेद हैं ॥६॥ पारिणामिक भावके भेदजीवभव्याभव्यत्वानि च ॥७॥ अर्थ- जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक भाव हैं। नोट-सूत्रमें आये हुऐ च'शब्दसे अस्तित्ववस्तुत्व प्रमेयत्व आदि सामान्य गुणोंका भी ग्रहण होता है। इस तरह जीवके सब मिलाकर कुल २ +९ +१८ + २१ +३ = ५३ त्रेपन भेद होते हैं ॥ ७॥ (देखें पेज ३० पर) जीवका लक्षणउपयोगो लक्षणम् ॥८॥ अर्थ- जीवका (लक्षणम् ) लक्षण ( उपयोगः) उपयोग (अस्ति ) है। उपयोग- आत्माके चैतन्य गुणसे सम्बन्ध रखनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं। उपयोग जीवका तद्भूत लक्षण है। उपयोगके भेद स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥९॥ अर्थ- (सः) वह उपयोग भूलमें (द्विविधः) ज्ञानोपयोग और 1. औदयिकभावमें जो अज्ञानभाव है वह अभावरूप होता है। और क्षायोपशमिक अज्ञानभाव मिथ्यादर्शनके कारण दूषित होता है । 2. कषायके उदयसे मिली हुई योंगोंकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org...
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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