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________________ [४] सातवें अध्यायमें शुभास्रवका वर्णन करनेके लिये सर्वप्रथम व्रतसामान्यका स्वरूप बतलाकर श्रावकाचारका स्पष्ट वर्णन किया गया है। आठवें अध्यायमें बन्धतत्त्वके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश नामक भेदोंका रोचक व्याख्यान है। __नववें अध्यायमें संवर और निर्जरा तत्त्वका वर्णन है। इन दोनों तत्त्वोंका वर्णन अपने ढंगका निराला ही है। और दसवें अध्यायमें मोक्षतत्त्वका सरल संक्षिप्त विवेचन किया गया है। ___ संक्षेपमें इस ग्रन्थमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा उनके विषयभूत जीव, आस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षतत्त्वका वर्णन हैं। अभीतक जैन सम्प्रदायमें धर्मशास्त्रके जितने ग्रन्थ देखने में आये हैं उन सबमें तत्त्वोंका निरूपण दो रीतियोंसे किया गया हैं। एक रीति तो यह है जिसे आचार्य श्री उमास्वामीने प्रचलित किया हैं और दूसरी रीति यह है जिसे आचार्य नेमिचन्द्राचार्यने धवलसिद्धांतके आधार पर गोम्मटसारमें बीस प्ररूपणाओंका वर्णन करते हुए प्रचलित किया है। तत्त्वनिरूपणकी दोनों रीतियाँ उत्तम हैं, अपने अपने ढंगकी अनुपम हैं। इसमें संदेह नहीं, परन्तु आचार्य उमास्वामी द्वारा प्रचलित हुयी रीतिको उनके बादके विद्वानोंने जितना अपनाया है। अपनी रचनाओंमें उस रीतिको स्थान दिया है उतना दूसरी रीतिको नहीं। गोम्मटसारकी शैलीका गोम्मटसार ही है अथवा उसका मूलभूत धवलसिद्धांत, परन्तु उमास्वामीकी शैलीसे तत्त्वप्रतिपादन करनेवाले अनेक ग्रन्थ हैं। पूज्यपाद अकलंक, विद्यानन्द तो उनके व्याख्याकार-भाष्यकार ही कहलाये, परन्तु अमृतचन्द्रसूरि, अमितगत्याचार्य, जिनसेन आदिने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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