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प्रथम अध्याय
सम्यग्दर्शनका लक्षणतत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥
अर्थ- ( तत्त्वार्थश्रद्धानम् ) तत्त्व-वस्तुके यथार्थ स्वरूप सहित अर्थ जीवादि पदार्थोका श्रद्धान करना ( सम्यग्दर्शनम् ) सम्यग्दर्शन (अस्ति ) है।
भावार्थ-चौथे सूत्रमें कहे जानेवाले जीव आदि सात तत्त्वोंका जैसा स्वरूप वीतराग-सर्वज्ञ भगवानने कहा है उसका उसी प्रकार श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शनके, उत्पत्तिकी अपेक्षा भेद
तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥
अर्थ- (तत्) वह सम्यग्दर्शन (निसर्गात् ) स्वभावसे (आ) अथवा ( अधिगमात् ) परके उपदेश आदि से ( उत्पद्यते) उत्पन्न होता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शनके उत्पत्तिकी अपेक्षा दो भेद हैं-१-निसर्गज, २ अधिगमज।
निसर्गज- जो परके उपदेशके बिना अपने आप ( पूर्वभवके संस्कार ) से उत्पन्न हो उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं।
अधिगमज- जो परके उपदेश आदिसे होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते है ' ॥३॥
तत्वोंके नामजीवाजीवास्त्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्।
अर्थ- ( जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाः) जीव, अजीव, 1. उक्त दोनों भेदोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व. सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ इन सात कर्मप्रकृतियोंका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमका होना आवश्यक है।
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