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________________ शंका समाधान [२०९ क्योंकि देवपर्यायकी इकतीस सागरसे अधिक आयुवाले जीव सम्यग्दृष्टि ही होते है, जो पांच परावर्तनसे रहित हैं। इन तिर्यंच आदि गतिमें वही क्रम जानना चाहिये जो नरकगतिमें बतलाया है। किन्तु सर्वत्र अपना अपना जघन्य और उत्कृष्ट आयुका विचार करके कथन करना चाहिये। इस प्रकार यह सब मिलकर एक भव परिवर्तन कहलाता है। एकसंज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्याद्दष्टि जीवने ज्ञानावरणकी सबसे जघन्य अन्त: कोडाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिका बन्ध किया । उसके उस स्थितिके योग्य सबसे जघन्य कषाय अध्यवसाय स्थान सबसे जघन्य अनुभाग अध्यवसाय स्थान और सबसे जघन्य योगस्थान हैं । अब उसके स्थिति, कषाय, अध्यवसाय स्थान और अनुभाग अध्यवसाय स्थान तो वही रहे, किन्तु योगस्थान दूसरा हुआ। इस प्रकार जगत्श्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थानोके होनेतक पर्वोक्त तीनो चीजें वही रहीं। अनन्तर उसके स्थिति और कषाय अध्यवसाय स्थान तो वही रहे किन्तु अनुभाग अध्यवसाय स्थान दूसरा हुआ। यहां जगत्श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान हो लेते है। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागस्थानोंके होने तक स्थिति और कषाय अध्यवसाय स्थान वही रहते हैं किन्त प्रत्येक अनभागस्थान प्रति योगस्थान जगतश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण ही लेते है। अनन्तर स्थिति तो वही रही किन्तु कषाय अध्यवसाय स्थान दूसरा हुआ इस दूसरे कषाय अध्यवसाय स्थानके प्रति भी असंख्यात लोकप्रमाण अनुभाग अध्यवसाय स्थान होते हैं, और प्रत्येक अनुभाग अध्यवसायस्थानके प्रति जगत्श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान होते हैं। इस क्रमसे स्थिति तो वही रहती है किंतु कषाय अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। इस प्रकार जब इन तीनोंका घेरा पूरा हो लेता है तब पूर्वोक्त स्थितिसे एक समय अधिक स्थितिका बन्ध होता है। अन्तः कोडाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिके प्रति जो कषाय अध्यवसायस्थान, अनुभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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