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शंका समाधान
[२०७ सम्यक्त्वकी छयासठ सागर स्थितिको प्राप्त करनेका यह एक प्रकार हैं इसी तरह अन्य प्रकारसे भी छयासठ सागर स्थिति प्राप्त की जा सकती हैं।
मूल बात इतनी हैं की ऐसे जीवको मनुष्यसे देव और देवसे मनुष्य पर्यायमें उत्पन्न करते आना चाहिए। किन्तु छयासठ सागरका मनुष्य पर्यायमें पूरा करावे क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारंभ कर्म भूमिया मनुष्यके ही होता हैं। . [१७] शंका-पांच परिवर्तनका क्या स्वरूप है?
[१७] समाधान-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावकी अपेक्षा परिवर्तन हैं। इनमेंसे पहले द्रव्य परिवर्तनमें कर्म और नोकर्मके ग्रहणकी मुख्यता है। इस अपेक्षासे इसके दो भेद हो जाते हैं-एक ऐसा जीव है जिसने विवक्षित रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाली नोकर्म वर्गणाओंका विवक्षित योगसे ग्रहण किया। अनन्तर द्वितीया समयों में वे निजीर्ण हो गई। तदनन्तर वह जीव संसारमें परिभ्रमण करता रहा। और ऐसा करते हुए उसके जब उन्हीं नौकर्म वर्गणाओंका पूर्वोक्त अवस्थाके रहते हुए ग्रहण होता है तब जाकर एक नौकर्म द्रव्य परिवर्तन होता है। इसी प्रकार कर्मद्रव्य परिवर्तनका स्वरूप जान लेना चाहिए। किन्तु इसमें विशेषता है कि कर्मवर्गणाओकी निर्जरा उनको ग्रहण करनेके अनन्तर द्वितीयादि समयसे न होकर एक समय अधिक एक आवलीकालके पश्चात् प्रारम्भ होती है। ये दोनों मिलकर एक द्रव्य परिवर्तन है। इसकी विशेष विधि अन्यत्रसे जान लेना चाहिये।
एक सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव हैं जो लोकाकाशके आठ मध्यप्रदेशोंको अपने शरीरके मध्यमें करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव तक जीवित रहकर मर गया। पुनः उसी अवगाहनासे वहां दूसरीबार उत्पन्न हुआ और क्षुद्र भव तक जीवित रहकर मर गया।
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