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________________ शंका समाधान [२०३ विषयको जानता है। परन्तु विपुलमति मन:पर्ययज्ञानकी यह बात नहीं है। यह तो उन सभी विषयोंको जानता है जिनका चिन्तवन किया जा चुका है, चिन्तवन किया जा रहा है या चिन्तवन किया जायगा। तथा ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान प्रतिपाती भी है। वह, जो जीव उपशमश्रेणी पर चढ़ता है उसके भी होता है। किन्तु विपुलमति मनःपर्ययज्ञान इस प्रकारका नहीं हैं इस प्रकार दोनों में बड़ा अन्तर है। [१३] शंका-केवलज्ञान का क्या विषय है ? [१३] समाधान-प्रकृति अनुयोगद्वारमें बतलाया है कि केवली जिन, देवलोक, असुरलोक और मनुष्यलोक की गति और आगति मरण, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुमार्ग, तर्क, कल, मन, मानसिक, मुक्त, कृत प्रतिसेवित आदिकर्म, अर्हकर्म, सब लोक सब जीव और सब भाव इन सबको जानते और देखते हुए विहार करते हैं । इससे ज्ञात होता है कि केवलज्ञानका विषय सब द्रव्य और उनकी सब अर्थ और व्यंजन पर्यायें हैं। आत्माका स्वभाव जानना और देखना हैं। चूंकि संसारी आत्मा आवरणकी हीनाधिकताके कारण सबको नहीं जान देख पाता है। पर जिस आत्माके ये आवरण नष्ट हो गये वह या तो सबको जाने और सबको देखे या किसीको न जाने और किसीको न देखे। दूसरे विकल्पके माननेपर जानना और देखना आत्माका स्वभाव नहीं ठहरता। अतः यही सिद्ध होता है कि सब द्रव्यकी और उनकी त्रिकालवर्ती सब अर्थपर्याय और व्यंजन पर्याय केवलज्ञानका विषय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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