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________________ दशम अध्याय [१८१ उक्त चारों कारणोंके क्रमसे चार दृष्टांतआविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतलेपालाबुवदेरण्ड बीजवदग्निशिखावच्च ॥७॥ अर्थ- (१) मुक्तजीव कुम्भकारके द्वारा घुमाये हुए चाककी तरह पूर्वप्रयोगसे ऊर्ध्वगमन करता हैं। अर्थात् जिस प्रकार कुम्भकार चाकको घुमाकर छोड़ देता है तब भी चक्र पहलेके भरे हुए वेगके वशसे घूमता रहता है, उसी प्रकार जीव भी संसार अवस्थामें मोक्षप्राप्तिके लिए बराबर अभ्यास करता था, मुक्त होनेपर यद्यपि उसका वह अभ्यास छूट जाता है, तथापि वह पहलेके अभ्याससे ऊपरको गमन करता है। (२) मुक्त जीव, दूर हो गया है लेप जिसको ऐसे तूम्बेकी तरह ऊपरको जाता है अर्थात् तूम्बेपर जबतक मिट्टीका लेप रहता है तबतक वह वजनदार होनेसे पानीमें डूबा रहता है, पर ज्योंही उसकी मिट्टी गलकर दूर हो जाती है त्योंही वह पानीके ऊपर आ जाता है। इसी प्रकार यह जीव जबतक कर्मलेपसे सहित होता है तबतक संसार समुद्रमें डूबा रहता है पर ज्योंही इसका कर्मलेप दूर होता है त्योंही वह ऊपर उठ कर लोकके ऊपर पहँच जाता है। (३) मुक्त जीव कर्मबन्धसे मुक्त होनेके कारण एरण्डके बीजके समान ऊपरको जाता है। अर्थात् एरण्ड वृक्षका सुखा बीज जब चटकता है तब उसकी मिंगी जिस प्रकार ऊपरको जाती है उसी प्रकार यह जीव कर्मोके बन्धन दूर होनेपर ऊपरको जाता है। और (४) मुक्त जीव स्वभावसे ही अग्निकी शिखाकी तरह ऊर्ध्वगमन करता है अर्थात् जिस प्रकार हवाके अभावमें अग्नि (दीपक आदि) की शिखा ऊपरको जाती है उसी प्रकार कर्मोके बिना यह जीव भी ऊपरको जाता है॥ ७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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