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________________ नवम अध्याय [१७१ अर्थ-अनिष्ट पदार्थका संयोग होनेपर उसे दूर करनेके लिए बार बार विचार करना सो(१) अनिष्ट संयोगज नामक आर्तध्यान है ॥३०॥ विपरीतं मनोज्ञस्य ॥३१॥ अर्थ- स्त्री पुत्र आदि इष्टजनोंका वियोग होनेपर उनके संयोगके लिए बार बार चिन्ता करना सो (२) इष्ट वियोगज नामक आर्तध्यान हैं ॥३१॥ वेदनायाश्च ॥३२॥ अर्थ- योगजनित पीड़ाका निरन्तर चिन्तन करना सो (३) वेदनाजन्य नामक आर्तध्यान है ॥३२॥ निदानं च ॥३३॥ ___ अर्थ-आगामी काल सम्बन्धी विषयोंकी प्राप्तिमें चित्तको तालीन करना सो (४) निदानज नामक आर्तध्यान॥३३॥ गुणस्थानोंकी अपेक्षा आर्तध्यानके स्वामीतदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३४॥ अर्थ- वह आर्तध्यान अविरत अर्थात् आदिके चार गुणस्थान, देशविरत अर्थात् पंचम गुणस्थान और प्रमत्तसंयत अर्थात् छठवें गुणस्थानमें होता है। ___ नोट- छठवें गुणस्थानमें निदान नामका आर्तध्यान नहीं होता है ॥ ३४॥ . रौद्रध्यानके ' भेद व स्वामीहिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरत देशविरतयोः॥३५॥ 1. क्रूर, परिणामोंके होते हुए जो ध्यान होता है उसे रौद्रध्यान कहते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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