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________________ - अष्टम अध्याय [१३५ नोट- उक्त आठ कर्मोमेसे ज्ञानावरण, दर्शनवरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म घातिया[ जीवके' अनुजीवी गुणोंके घातनेवाले ] हैं और बाकीके चार कर्म अघातिया [ प्रतिजीवी गुणोंके घातनेवाले ] हैं।' प्रकृतिबन्धके उत्तर भेदपञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपंञ्चभेदा __ यथाक्रमम् ॥५॥ अर्थ- ऊपर कहे हुए ज्ञानावरणादि कर्म क्रमसे ५, ९, २, २८, ४, ४२, २ और ५ भेदवाले हैं ॥५॥ ज्ञानावरणके पांच भेदमतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम् ॥६॥ अर्थ- मतिज्ञानावरण [ मतिज्ञानको ढाँकनेवाला ], श्रुतज्ञानावरण [श्रुतज्ञानको ढांकनेवाला], अवधिज्ञानावरण [ अवधिज्ञानको ढांकनेवाला], मनःपर्यय ज्ञानावरण [ मन:पर्यय ज्ञानको ढांकनेवाला] और केवलज्ञानावरण (केवलज्ञानको ढांकनेवाला) ये पांच ज्ञानावरणके भेद हैं। दर्शनावरण कर्मके ९ भेदचक्षुरचक्षुरवधिकेवलानांनिद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ॥७॥ 1. सदभाव रूप गण। 2. अभाव रूप गुण। 3. जिस प्रकार एक ही बार खाया हुआ भोजन रस, खून आदि नाना रूप हो जाता है उसी तरह एकबार ग्रहण किया हुआ कर्म ज्ञानावरणादि अनेक भेदरूप हो जाता है । विशेषता यह है कि भोजन, रस, खून आदि रूप क्रम क्रमसे होता है, परन्तु कर्म ज्ञानावरणादि रूप एकसाथ हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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