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________________ सप्तम अध्याय [११९ सत्याणुव्रत- राग, द्वेष, भय आदिके वश हो स्थूल असत्य बोलनेका त्याग करना सत्याणुव्रत है।। अचौर्याणुव्रत-स्थूल चोरीके त्यागको अचौर्याणुव्रत कहते है। ब्रह्मचर्याणुव्रत-परस्त्री सेवनका त्याग करना सो ब्रह्मचर्याणुव्रत है। परिग्रह- परिमाणाणुव्रत-आवश्यकतासे अधिक परिग्रहका त्यागकर शेषका परिमाण करना सो परिग्रह-परिमाणाणुव्रत है ॥२०॥ ___ अणुव्रतके सहायक सात शीलव्रतदिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोप भोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च अर्थ- वह व्रती दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत इन तीन गुणव्रतोसे तथा सामायिक,प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोग परिमाण और अतिथि, संविभागवत इन चार शिक्षाव्रतोंसे सहित होता है। अर्थात् व्रती श्रावक पांच अणुव्रत, तीन गुणवत' और चार शिक्षाव्रत ' इस प्रकार बारहव्रतोंका धारी होता है। तीन गुणव्रत १- दिग्व्रत-मरणपर्यंत सूक्ष्म पापोंकी निवृत्तिके लिए दशों दिशाओंमें आनेजानेका परिमाण कर उससे बाहर नहीं जाना सो दिग्व्रत है। २- देशव्रत-जीवनपर्यंतके लिये किये हुये दिग्व्रतमें और भी संकोच करके घड़ी घण्टा दिन महिना आदि तक किसी गृह मुहल्ले आदि तक आना जाना रखना सो देशव्रत है।' 1. अणुव्रतोंका उपकार करें उन्हें गुणव्रत कहते है। 2. जिनसे मुनिव्रत पालन करनेकी शिक्षा मिले उन्हें शिक्षाव्रत कहते है। 3. दिग्व्रत और देशव्रतमें समयकी मर्यादाकी अपेक्षा अन्तर होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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