SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्याय [११७ नोट २- एक जीव किसी जीवको मारना चाहता था पर मौका न मिलनेसे मार न सका तो भी वह हिंसाका भागी होगा क्योंकि वह प्रमाद सहित है और अपने भाव प्राणोंकी हिंसा करनेवाला है ॥१३॥ असत्यका लक्षणअसदभिधानमनृतम् ॥१४॥ अर्थ- प्रमादके योगसे जीवोंको दुखदायक वा मिथ्यारुप वचन बोलना सो असत्य है ॥१४॥ स्तेय-चोरीका लक्षणअदत्तादानं स्तेयम् ॥१५॥ अर्थ- प्रमादके योगसे बिना दी हुई किसीकी वस्तुको ग्रहण करना चोरी है॥१५॥ कुशीलका लक्षण मैथुनमब्रह्म ॥१६॥ अर्थ- मैथुनमको अब्रह्म अर्थात् कुशील कहते है। मैथुन- चरित्रमोहनीय कर्मके उदयसे राग परिणाम सहित स्त्री पुरुषोंके परस्पर स्पर्श करनेकी इच्छाको मैथुन कहते हैं ।। १६॥ परिग्रह पापका लक्षणमूर्छा परिग्रहः ॥१७॥ अर्थ- मूर्छाको परिग्रह कहते है। मूर्छा- बाह्य धन, धान्यादि तथा अन्तरंग क्रोधादि कषायोंमें 'ये मेरे है ' ऐसा भाव रहना सो मूर्छा है।।१७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy