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________________ ११०] करना और १६ - प्रवचनवत्सलत्वम् गोवत्सकी तरह धर्मात्मा जीवोंसे स्नेह रखना । ये सोलह भावनायें तीर्थकर प्रवृति नामक नामकर्मके आस्रव हैं 113811 1 नोट- इन भावनाओंमें दर्शनविशुद्धि मुख्य भावना हैं । उसके अभावमें सबके अथवा यथासम्भव हीनाधिक होनेपर भी तीर्थंकर प्रकृतिका आस्रव नहीं होता और उसके रहते हुए अन्य भावनाओंके अभावमें भी तीर्थंकर प्रकृतिका आस्त्रव होता है ' ॥ २४ ॥ नीच गोत्रकर्मका आस्रव परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २५ ॥ अर्थ - ( परात्मनिन्दाप्रशंसे) दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा करना, (च) तथा (सदसद्गुणोद्भवने ) दूसरेके मौजूद गुणोंको ढांकना और अपने झूठे गुणोंको प्रकट करना, व े नीच गोत्रकर्मके आस्रव हैं ।। २५ ।। उच्च गोत्रकर्मका आस्रव तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य ॥ २६ ॥ अर्थ- ( तद्विपर्ययः) नीच गोत्रके आस्रवोंसे विपरीत अर्थात् परप्रशंसा तथा आत्मनिन्दा (च) और (नीतर्वृत्त्यनुत्सेकौ ) नम्र वृत्ति तथा मदका अभाव ये (उत्तरस्य) उच्च गोत्रकर्मके आस्रव हैं ॥ २६ ॥ अन्तराय कर्मका आस्रव विघ्नकरणमऽन्तरायस्य ॥ २७ ॥ अर्थ- परके दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य में विघ्न करना, अन्तरायकर्म का आस्रव हैं ॥ २७ ॥ 1. इस प्रकृतिके उदयमं समवमरणमें अष्ट प्रातिहार्य रूप विभूति प्राप्त होती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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