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________________ मनान [१० (१०) आयु, इन्द्रिय आदि प्राणोंका वियोग करना सो प्राणातिपातिनी क्रिया है। (११) रागके वशीभूत होकर मनोहर रुप देखना सो दर्शन क्रिया है। (१२) रागके वशीभूत होकर वस्तुका स्पर्श करना स्पर्शन क्रिया है। (१३) विषयोंके नये २ कारण मिलना प्रात्ययिकी क्रिया हैं। (१४) स्त्री पुरुष अथवा पशुओंके बैठने तथा सोने आदिके स्थानमें मलमुत्रादि क्षेपण करना समन्तनुपात क्रिया है। (१५) बिना देखी बिना शोधी हुइ भूमिपर उठना बैठना अनाभोग क्रिया है। (१६) लोभसे वशीभूत हो दूसरेके द्वारा करने योग्य क्रियाको स्वयं करना स्वहस्त क्रिया है। (१७) पापकी उत्पन्न करनेवाली प्रवृतिको भला समझना निसर्ग क्रिया है। (१८) परके किये हुये पापोंको प्रकाशित करना विदारण क्रिया है। (१९) चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे शास्त्रोक्त आवश्यकादि क्रियाओके करने में असमर्थ होकर उनका अन्यथा निरुपण करना सो आज्ञाब्यापादिकी क्रिया है। (२०) प्रमाद अथवा अज्ञानके वशीभूत होकर आगमोक्त क्रियाओंमें अनादर करना अनाकाक्षा क्रिया है। (२१) छेदन भेदन आदि क्रियाओंमें स्वयं प्रवृत होना तथा अन्यको प्रवृत देखकर हर्षित होना प्रारम्भ क्रिया है। . (२२) परिग्रहकी रक्षामें प्रवृत होना पारिग्रहिकी क्रिया है। ( २३) ज्ञान दर्शन आदिमें कपटरुप प्रवृति करना माया क्रिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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