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________________ माक्षशास्त्र सटीक केवली समुद्धात' अवस्थामें सम्पूर्ण लोकाकाशमें व्याप्त हो जाता है और सिद्ध अवस्थामें अन्तिम शरीरसे कुछ कम रहता है ॥१६॥ धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार या लक्षणगतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरूपकारः ॥१७॥ अर्थ-स्वयमेव गमन तथास्थितिको प्राप्त हुए जीव और पुद्गलोंको गति तथा स्थितिमें सहायता देना क्रमसे धर्म और अधर्म द्रव्यका उपकार है। भावार्थ- जो जीव और पुद्गलोंको चलने में सहायक हो उसे धर्म द्रव्य तथा जो ठहरने में सहायक हो उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं ॥ १७ ॥ आकाशका उपकार या लक्षण आकाशस्यावगाहः ॥१८॥ अर्थ- समस्त द्रव्योका अवकाश देना आकाशका उपकार है। भावार्थ- जो सब द्रव्योंको ठहरनेके लिये स्थान देवे उसे आकाश कहते है ॥१८॥ पुद्गल द्रव्यका उपकारशरीरवाड्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम्॥१९॥ अर्थ- औदारिक आदि शरीर, वचन मन तथा श्वासोच्छ्वास ये पुद्गलद्रव्यके उपकार हैं, अर्थात्त् शरीरदिकी रचना पुद्गलसे ही होती हैं॥१९॥ सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥२०॥ 1. मूल शरीरको न छोड़कर आत्माके प्रदेशोके बाहर निकलनेको समुद्धात कहते हैं। इसके सात भेद होते है । १. आहारक, २. वैक्रियिक, ३. तैजस, ४. कषाय, ५. वेदना, ६. मारणान्तिक और ७. केवलि लोक परण। Jain Education International For Private & Personal Use Only __www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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