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________________ · चतुर्थ अध्याय [ ७१ अर्थ- वैमानिक देव-आयु, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्याकी विशुद्धता, इन्द्रिय विषय और अवधिज्ञानका विषय इन सबकी अपेक्षा. उपर उपर विमानोमें अधिक अधिक हैं ॥२०॥ वैमानिक देवोंमें उत्तरोत्तर हीनतागतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २१॥ अर्थ- ऊपर ऊपरके देव, गति, शरीर, परिग्रह और अभिमानकी अपेक्षा हीन हीन हैं। नोट- सोलहवें स्वर्गसे आगेके देव अपने विमानको छोडकर अन्यत्र कहीं नहीं जाते ।। २१ ॥ वैमानिक देवोंमें शरीरकी ऊचाईका क्रम इस प्रकार है स्वर्ग हाथ १३-१४ 32 १५-१६ ५-८ 5 अधोग्रैवेयक ९-१२ . 4 मध्यप्रैवेयक उपरिमग्रैवेयक,अनुदिश अनुत्तर विमान स्वर्ग १-२ ३-४ वैमानिक देवोंमे लेश्याका वर्णनपीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥२२॥ अर्थ- (द्वित्रिशेषेषु ) दो युगलोंमें तीन युगलोंमें तथा शेषके समस्त विमानों में क्रमसे ( पीतपद्मशुक्ललेश्याः) पीत पद्म और शुक्ल लेश्या होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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