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74 सूक्तरत्नावली
अधिकारात् स्यादर्थस्य प्रतीतिः प्रतिभान्विता । रणे राजन्ति मातंगा, अत्र कुंजरनिर्णयाः । । 287 ।।
साहसी व्यक्ति निश्चय ही अधिकारपूर्वक अर्थ की उपलब्धि करता हैं। हाथी अपने दृढ़ निर्णय के आधार पर ही रण में शोभायमान होते हैं। यही पर मातंग (चाण्डाल एवं कुंजर) का निर्णय हो जाता है । सच्छिद्रै रसिकात्मभ्यः क्वचिन्नादीयते रसः । नीरं नीराशयेभ्यः किं चातकैः परिभुज्यते ? ।। 288 ।।
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दुर्गुण सम्पन्न अरसिकों द्वारा रसिक जनों से रस (आनंद) कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। क्या चातक जलाशय से जल की आशा करता है ? अर्थात् कदापि नहीं, क्योंकि वह तो स्वाति नक्षत्र में बरसने वाले बादलों से ही रस (जल) की याचना करता है। अहो ! तेजस्विनां कापि, कला कौशलपेशला । चिन्ता चिन्तानिवृत्तिश्च दृग्भ्यामेवाऽवगम्यते । । 289 । ।
अरे ! तेजस्वी व्यक्ति की कार्यकुशलता और चतुराई तो देखो ! चिन्ता और चिन्तानिवृत्ति दोनों नेत्रों से ही जान लिये जाते हैं । सेवा तिष्ठतु दुष्टानां दर्शनादपि भीतयः । प्रेक्षिता अपि किं सर्पोः, न संत्रासस्य कारणम् ? | 1290 ।।
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दुष्ट व्यक्तियों की सेवा तो दूर रही उनका दर्शन भी भय के लिए होता हैं। क्या सर्पों का देखना ही त्रास का कारण नही होता है? अकीर्तिः पापसंगेऽपि, लघोः स्यान्न गरीयसः । विनश्येद्वायसैः पीते, तोये कुम्भश्च नो सरः । । 291 || पापी का संग होने पर छोटे लोगों की अपकीर्ति होती है, बड़ों की नहीं । कौओं द्वारा पानी पीने पर घड़े का पानी बिगड़ता है, तालाब का नहीं ।
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