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सूक्तरत्नावली / 53
आपत्प्राप्तोऽपि तेजस्वी, परस्य उपकारकृत् । किमस्तं व्रजता न्यस्तं, न दीपेंऽशुमता महः? ||184।।
तेजस्वी व्यक्ति आपत्तिग्रस्त होने पर भी दूसरों का उपकार करता है। क्या अस्ताचल को प्राप्त सूर्य दीपक को प्रकाशित नहीं करता? सुखयन्ति जगद् वाग्मि,-लघीयांसोऽपि वाग्मिनः। किं न लघ्न्योऽपि गोस्तन्यो, रसैर्विश्वसुखावहाः? ||185।।
बोलने मे चतुर व्यक्ति छोटे होते हुए भी वाणी से जगत् को सुख पहुँचाते हैं। क्या द्राक्षा छोटी होने पर भी रस द्वारा विश्व को तृप्त नहीं करती?
महानपि प्रसिद्धोऽपि, दोषः क्वाऽपि गुणायते। न जरा भाति किं दीक्षा,-भाजि मिषजि राजि च? 11186 ।। ___ अत्यन्त प्रसिद्ध कोई दोष भी कभी-कभी या कहीं-कहीं गुण के समान बन जाता है। क्या दीक्षा पात्र (दीक्षा प्राप्ति के समय) एवं वैद्य राजि मे (वैद्य सभा में) जरा (वृद्धाअवस्था) शोभायमान नहीं होती है ? अर्थात् गुण रुप बन जाती है।
आस्तां प्रभावांस्तत्प्राप्त,-प्रभोऽपि जनकृत्यकृत् । सूर्यादाप्तरुचोऽप्यासन्, यद्दीपाः कार्यकारिणः।। 187 ।।
तेजस्वी व्यक्ति तो दूर रहो उससे प्राप्त प्रभा भी लोगों के कार्यों को पूर्ण करती है। सूर्य से निकली किरणें भी प्रकाश के कार्यों को कर देती है।
धत्ते महस्वितां मुखै,-मलिनोऽपि महाधनः। भ्रमवच्छाणसंसर्गी, किमसिन विमासुरः ?।। 188 ।। मूर्ख व्यक्ति भी भद्र व्यक्ति की संगत से विशेष रुप से शोभा को
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