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________________ 88888888888 सूक्तरत्नावली / 45 गुण के समान दोष का स्थान होने पर भी गुणीजन सम्मान के योग्य होते है अन्य नहीं। मोतियों में छिद्र होने पर भी हार का स्थान हृदय पर होता है नूपुरों का नही। तुच्छात्माऽपि पराभूतः, सद्यः स्यादभिभूतये । फूत्कृतेन हतं भस्म, स्वमयं कुरुते मुखम् ।। 144|| अन्य को पराभूत करने के लिए तैयार व्यक्ति स्वयं ही पराभूत होता है। जैसे फूंक के द्वारा अग्नि को बुझाने पर स्वयं का मुख राख से मलिन हो जाता है। स्वं विनाश्याऽपि तुच्छात्मा, भवेदन्यविनाशकृत्। पावके पतितं पाथः, स्तस्य तस्य च हानये।। 145।। तुच्छ आत्मा स्वयं का भी नाश करता है और अन्य का भी। अग्नि में गिरा हुआ पानी स्वयं का और अग्नि का भी नाश करता है। हीनानां वृद्धिरल्पाऽपि, नार्हा तेजोजुषामपि। भस्मानं भारितो वह्नि,-रसन्निव निरूप्यते।। 146 ।। हीन व्यक्तियों के तेज की अल्पवृद्धि भी प्रशंसा के योग्य नहीं है। राख से ढकी हुई अग्नि “नही हैं" ऐसा निश्चय किया जाता हैं। विशेषाज्जडसंसर्गः, साक्षराणामनर्थकृत् । समर्थयन्त्यर्थमेनं, यल्लेखा लिखिताक्षराः ।। 147 ।। विशेष कर साक्षर (विद्वान्) व्यक्तियों का जड़ बुद्धि के साथ संसर्ग (संपर्क में आना) महान् अनर्थकारी होता है इसका समर्थन प्रस्तर खण्ड पर उल्लेखित अक्षरों से किया जा सकता है। नाप्नुवन्त्यबुधास्तत्त्वं, विद्वत्सु मिलितेष्वपि। किमन्धा मुखमीक्षन्ते, कृतेऽपि मुकुरे करे? || 148।। विद्वान् व्यक्तियों पर भी मूर्ख व्यक्ति तत्व को प्राप्त नही करते है। छालाल ww60000000000000000mmad MORRORRRRRB 000000000000000000000000000ठठक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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