SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - सूक्तरत्नावली / 29 दो जीभ वाले (चुगलखोर व्यक्ति) मिल कर भी सज्जन व्यक्ति में विकृति (मानसिक हलचल) उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। अपने मूल में सर्पो के रहने पर भी चन्दन का वृक्ष गरलत्व की इच्छा नहीं करता है। निजकार्याय दुष्टोऽपि, महर्बिहु मन्यते। दाहकार्यपि सप्तार्चि,-रिन्धनार्थ गवेष्यते।। 6411 स्वयं के कार्यो के लिए महान व्यक्तियों के द्वारा दुष्ट व्यक्ति भी बहुत माना जाता है। जैसे दाहकार्य होने पर अग्नि ईन्धन की खोज करती है। कु प्रसिद्धिः कुसंगेन, तत्क्षणान्महतामपि। महेशो विषसान्निध्यात्, कण्ठेकालोऽयमीरितः।। 6511 महान् व्यक्ति की भी कुसंगति के कारण अपकीर्ति होती है। जैसे शंकर को विष के संग से कण्ठेकाल कहा जाता है। न सत्संस्तवसौभाग्यं, गदितु गुरुरप्यलम् । तन्तुभिः सुमनःसंगा,-ल्लब्धं स्वाहाभुजां शिरः ।। 66।। सज्जनपुरुष (महात्माओं के) के गुण गौरव का सुन्दर वर्णन करने में गुरु भी समर्थ नहीं हो सकता है। पुष्प के संयोग के कारण सूत्र (तन्तु) द्वारा विद्वानों के स्कन्ध पर विराजने का योग बन जाता है। निःसारे वस्तुनि प्रायो, भवेदाडम्बरो महान् । कुसुम्भे रक्तिमा यादृग, घुसृणे न च तादृशी।। 67 ।। । प्रायः अनुपयोगी वस्तु भी बहुत चमक दमक वाली होती है जैसे कुसुम्भ में जैसी लालिमा होती है वैसी केसर में नहीं होती है। क्षीयतेऽभ्युदयेऽन्येषां, तेजस्तेजस्विनामपि। नोदये पद्मिनीबन्धोः, किं दीपाः क्षीणदीप्तयः ? ||68 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy