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________________ 888888888888888 । सूक्तरत्नावली / 27 अल्पीयानप्यसत्संगः, स्यादनर्थाय भूयसे। यवनैरेकशो भुक्तः, स्यादाजन्मान्वयाबहिः।। 54|| दुःसंगति कितनी भी अल्प हो, अनर्थ के लिए ही होती है। जैसे मुस्लिमों के साथ एक बार भी भोजन करने पर आजन्म के लिए जाति बहिष्कृत कर दिया जाता है। विकारं नैति जीवान्तं, कष्टमारोपितोऽपि सन्। यत्तापितमपि स्वर्ण, वर्ण धत्ते मनोरमम्।। 55 ।। दुःखावस्था में भी सज्जन व्यक्ति विकृति को प्राप्त नहीं होता है। अग्नि मे तपाये जाने पर भी सोना सुंदर स्वरुप को प्राप्त करता है। न करोति नरः पापमधीताऽल्पश्रुतोऽपि सन्। यद् भणन् रामरामेति, न कीरः पललालसः।। 56 || अल्प ज्ञान होने पर भी व्यक्ति पाप नहीं करता है। जैसेराम-राम कहता हुआ पोपट मांस लोलुप नहीं होता है। वसन्नपि गुणिषु पापो, न वेत्ति गुणिनां गुणान्। न तिष्ठन्नुदके भेको, गन्धं वेत्ति सरोरुहाम्।। 57 || पापी व्यक्ति गुणीजनों के साथ रहते हुए भी उनके गुणों को नहीं जान पाता हैं। मेंढक पानी में रहते हुए भी कमल की सौरभ को नहीं जानता है। महस्विमिलनान्मन्दा, अपि स्युर्दुःसहाः सखे !! जलं ज्वलनसंपृक्तं, दुःसहं ददृशे न कैः ?।। 58 ।। हे सखि ! महस्वी व्यक्ति के मिलने से मूर्ख व्यक्ति भी असह्य हो जाता है। क्या अग्नि के मिलने से पानी दुस्सह्य नहीं दिखाई देता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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