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________________ 24 / सूक्तरत्नावली खण्डीकृतोऽपि पापात्मा, पापान्नैव निवर्तते। शिरोहीनोऽपि किं राहु-ग्रंसते न सुधाकरम् ?||39।। असफल होने पर भी पापी व्यक्ति पाप से निवृत्त नहीं होता है। क्या शीशहीन राहु चन्द्रमाँ को ग्रसित नहीं करता है ? बालं दृष्ट्वाऽपि दुष्टानां, दयोदेति हृदि ध्रुवम्। ग्रस्यते किं द्वितीयायाः, शत्रुणा राहुणा शशी? 114011 बालक को देखकर दुष्ट व्यक्तियों के हृदय में भी दया आ जाती है। जैसे राहु शत्रु होते हुए भी क्या द्वितीया के चन्द्रमाँ को ग्रसित करता है ? अर्थात् नहीं करता है। अभाग्ये सत्यनऑय, सतां संगेऽपि जायते। नालिकेरजलं जज्ञे, कर्पूरमिलनाद् विषम् ।। 41|| दुर्भाग्य होने पर भी सज्जन व्यक्तियों की संगति भी अनर्थ के लिए होती है। नारियल के पानी मे कपूर मिलाने से विष हो जाता है। विरोधोऽपि भवेद् भूत्यै, कलावदभिः समं सखे !। दीयते कात्रच्नं चन्द्र, ग्रासात्तमसि वीक्षिते।। 42|| कलावान् व्यक्ति का विरोध होने पर भी वह निष्पक्ष कल्याण के लिए ही कार्य करता है। चन्द्रमाँ (राहु से) ग्रसित करने वाले राहु को भी प्रकाश देता है। कलावानपि जिह्यात्मा, बहुभिर्ब हु मन्यते । किमु लोकैर्द्वितीयाया, नमश्चके न चन्द्रमाः ?|| 43 || ___ कलावान् कुटिल आत्मा भी बहुत लोगो द्वारा अत्यधिक मान प्राप्त करता है। क्या संसार के द्वारा द्वितीया के चन्द्रमाँ को नमस्कार नहीं किया जाता है ? casio 000ठ e w8308990s00000000000000000000588888888888888880000००० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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