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सूक्तरत्नावली / 23
स्तोकोऽपि गुणिसंपर्कः, श्रेयसे भूयसे भवेत्। लवणेन किमल्पेन, स्वादु नान्नमजायत ?।। 34 ।।
थोड़ा सा गुण-सम्पर्क भी कल्याण के लिए होता है जैसे थोड़े से नमक से भी क्या अन्न का स्वाद उत्पन्न नहीं होता?
भवन्ति परसंपत्तौ, पुण्यात्मानः सदाशयाः। नमो मल्यमालोक्य, शरद्यम्भोऽभवच्छुभम्।। 35 ।।
पुण्यात्मा व्यक्ति दूसरों की सम्पत्ति में भी अच्छे आशय वाले होते है। जैसे नभ की निर्मलता को देखकर शरद ऋतु में पानी स्वच्छ हो जाता है। पापात्मसंगमेऽपि स्यात्, ख्यातिरेव महात्मनाम् । चित्रेषु न्यस्ता शोभायै, किं रेखाऽजनि नान्जनी? ||36 ।।
दुष्ट व्यक्तियों के संसर्ग में भी पुण्यवान् व्यक्तियों को ख्याति प्राप्त हो जाती है। क्या चित्र में खिंची काजल की रेखा शोभा प्राप्त नहीं करती है ? अन्यदेशगतिाय्या, महोहानौ मन(ह)स्विनाम् । न किं द्वीपान्तरं प्राप्त,-स्त्विषां नाशे त्विषांपतिः? || 3711
बुद्धिमान् व्यक्ति अत्यधिक हानि होने पर अन्य देश चले जाते है। जैसे किरणों के नाश होने पर क्या सूर्य द्वीपान्तर को नहीं जाता?
लघीयानपि वाल्लंभ्यं, समेति समये सखे !। आदेया भोजनप्रान्ते, शलाका तृणमय्यपि।। 38 ।।
हे सखि ! छोटे लोगों को भी प्रेम से रखना चाहिये। अवसर पर वह भी काम आता है। जैसे भोजन के उपरान्त तृण की शलाका भी आदर योग्य होती है।
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