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14 / सूक्तरत्नावली
सूक्तरत्नावली के लेखक
16वीं एवं 17वीं सदी में अनेक प्रभावक जैन आचार्य हुए, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व से मुगल बादशाहों को प्रभावित किया था, उनमें एक विजयसेन सूरि भी थे। विजयसेन सूरि के व्यक्तिव का निर्माण उनके गुरु हीरविजयजी ने किया था। जैनधर्म के प्रचार में विजयसेनसूरिहीरविजयजी के सबल सहायक थे एवं सफल उत्तराधिकारी थे। बादशाह अकबर को अपने व्यक्तित्व से प्रभावित कर जैन धर्म के प्रति उसकी आस्था को सुदृढ़ करने का तथा हीरविजयजी की ख्याति को अधिक विस्तृत करने का श्रेय विजयसेनसूरि को ही है। हीरविजयजी के गुजरात पदार्पण के बाद बादशाह अकबर का एक सन्देश उनके पट्टशिष्य विजयसेनसूरि के पास पहुँचा, जिसमें विजयसेन सूरि को अकबर के दरबार में पहुंचने का निमन्त्रण था। वे लाहौर पहुँचे, उनकी अध्यात्ममयी वाणी को सुनकर अकबर प्रसन्न हुआ और इस अवसर पर विजयसेनसूरि को सवाई हीरजी की उपाधि प्रदान की गयी। विजयसेन सूरि वाद्यविद्या में भी निपुण थे। अकबर के दरबार में उन्होंने अनेक शास्त्रचर्चाओं में भाग लेकर जैन दर्शन की कीर्तिपताका फहराई थी। विजयसेनसूरि के जीवन में ऐसी कई विशेषताएँ थीं। हीरविजयजी के स्वर्गवास के बाद वे तपागच्छ के नायक बने और उन्होंने अपने गच्छ का संचालन सफलतापूर्वक किया। वे अच्छे लेखक एवं एक प्रभावक आचार्य थे। साथ ही वे गुरु के प्रति विशेष आस्थाशील थे।
विजयसेनसूरि के गुरु तपागच्छीय आचार्य हीरविजय थे। हीरविजय जी के गुरु विजयदानसूरि थे। विजयसेनसूरि के शिष्य परिवार में विद्याविजय, नन्दीविजय आदि प्रमुख थे। विजयसेन सूरि ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपने शिष्य विद्याविजयजी की नियक्ति की थी और उनका नाम विजयदेव रखा था।
विजयसेनसूरि का स्वर्गवास वि.सं. 1672 में हुआ था। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत कृति में विजयसेनसूरि ने लेखक के रूप में अपने नाम का स्पष्ट उल्लेख किया है। प्रस्तुत कृति के 500वें श्लोक में विजयसेनसूरि ने अपने नाम का स्पष्ट निर्देश किया है तथा कृति का रचनाकाल वि.सं. 1647
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