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________________ PROB000000 सूक्तरत्नावली / 119 यदि नीतिमृगीनेत्रा,- मात्मसात्कर्तुमीहसे। निधेहि तदिमां कण्ठे, संवननौषधीमिव।। 503|| हे सुजनो! यदि इस हरिणाक्षि के नेत्रों के समान नीति सम्पन्न सुक्तरत्नावली को आत्मसात् (हृदय में निविष्ट करना) चाहते हो तो संजीवनी औषध के समान जीवनदात्री इस सूक्तरत्नमाला को अपने कण्ठ प्रदेश मे धारण करें। चिरं चित्तचमत्कारि,-सूक्तरत्नामनोज्ञया। कण्ठस्थयाऽनया नूनं, वक्ता स्यात् सम्यवल्लभः 11504|| चिरकाल तक मन को चमत्कार से प्रतिपूरित करने वाली सुंदर सूक्तरत्नावली को कण्ठस्थ (गले में धारण) करके वक्ता निश्चित ही सभा का वल्लभ बन सकता है। स्याद्विशारदवृन्दान्तः, स्थातुं वक्तुं च चेन्मनः। तदा सुकृतियोग्यैषा, कण्ठपीठे निधीयताम्।। 505 || यदि आपका मन विद्वानों के समूह के अन्तःकरण में रहने का इच्छुक हो और उस सभा मे बोलना चाहता है तो सुकार्य के समान यह रचना कण्ठ में धारण की जावे। एतस्याः सूक्तमप्येकं, नरः कण्ठे बिभर्ति यः। लोकानुल्लासयेत्सोऽपि, चकोरानिव चन्द्रमाः।। 506 || जो व्यक्ति इस सूक्तरत्नावली के एक भी सूक्त को अपने कण्ठ मे धारण कर लेता है वह व्यक्ति चकोर को आनन्दित करने वाले चन्द्रमा के समान लोगों के मन को उल्लास से परिपूर्ण कर सकता है। भूरिभावावभासैक, - दिनेशद्युतितुल्यया। अन्या श्लिष्टकण्ठः स्यात्, पुमर्थेषु समर्थधीः ।। 507 ।। सूर्य के प्रकाश समान विविध भावों (विचारो या उपदेशों) से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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