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________________ 118 / सूक्तरत्नावली कृतिततिचित्तचमत्कृति,-कारिगुणा कान्तकान्तिकमनीया। नयनिपुणवचनरचना, सुन्दरतरवृत्तभावमध्यमणिः । 1499 ।। रचनाश्रेणी में चित्त को चमत्कृत करने वाली सुष्टु गुणों से सम्पन्न एवं सुंदर कान्ति से कमनीय तथा नय से निपुण शब्दावली से विरचित यह रचना (सूक्तरत्नावली) अत्यन्त सुंदर ग्रन्थमाला की मध्यमणी के समान विलसित है। वर्षे मुनियुगनरपति,-मिते तसरगच्छजलधिशशिसदृशैः। श्री विजयसेनसूरि,-द्विरदर्निरमायि निर्मायैः।। 500|| इस सूक्ता-रत्नावली ग्रन्थ की रचना वि.सं. 1647 में तपागच्छरूपी सागर में चन्द्रमाँ के समान धवल कान्ति वाले, माया रहित, श्रेष्ठ हाथी ऐरावत के समान श्री विजयसेनसूरिजी द्वारा सम्पन्न की गई है। कण्ठपीठे लुठत्येषा, यदीये गुणहारिणी। मनांसि मोहयेनूनं, स सभाहरिणीदृशाम्।। 5011। गुणों द्वारा पाठकों के मन को हरणकरने वाली यह रचना जिसके कण्ठप्रदेश मे रमण करती है। वह व्यक्ति निश्चय ही सभा को मृगनयनी के नेत्रों के समान सभा में विराजित विद्वत जनों के मानस को संमोहित कर देता है। यस्याम मञज्रीवैषा, तिष्ठत्यामो ददा मुखो। कामोत्सवाय जायेत, कोकिलास्ये व तस्य वाक् ।।502।। आमोद प्रदान करने वाली आम्रमंजरी के समान यह रचना जिस विद्वान् व्यक्ति के मुख में विराजित हो जाती है, उसकी वाणी कोयल के मुख के समान वसन्तोत्सव के समान आनन्ददायी बन जाती है। जिस प्रकार वसन्तागम पर कोयल की मधुरध्वनि उत्सव को द्विगुणित कर देती है उसी प्रकार सूक्तरत्नावली से मण्डित मुखवाला सुकवि श्रोताओं के आन्दोत्सव का हेतु बन जाता है। 9805880588058880ठ ठळ000006066536R S 5E. 3888888888888888888888888888888 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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