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________________ सूक्तरत्नावली / 115 .. महान् व्यक्तियों के हाथ दान से, हृदय शोभा ध्यान से, मौन से मुखमण्डल, धन से गृह तीर्थस्थान में मांगलिक वाहन का सदुपयोग एवं वाणी ज्ञान से सुअलंकृत हुआ करती हैं। धमें कृपा गुरौ ब्रह्म, देवे विगतरागता। मित्रे प्रीतिर्नृपे नीतिः, सक्तुमध्ये लुठद् घृतम् ।।486 || धर्म में करुणाभाव, गुरु में ब्रह्मत्व, देव मे वीतरागता मित्र मे प्रीति एवं राजा मे नीति ये सब सक्तू (सिके हुए गेहूँ, जौ अथवा चने के चूर्ण) में विपुलमात्रा में सम्मिश्रित घी के समान कहे जाते हैं। पूजाऽर्हतां गुरोः सेवा, सर्वज्ञवचसां श्रुतिः । पात्रे दानं सतां संगः, फलं मनुजजन्मनः।। 487 ।। अर्हत पूजा, गुरुजन की सुश्रुषा, सर्वज्ञ की वाणी का श्रवण, सुपात्रदान एवं सज्जन पुरुषों का संग ये सभी मानवजन्म के फल (अनिवार्य सुकर्म) कहे गये हैं। विभवे सति सन्तोषः, संयमः सति यौवने। पाण्डित्ये सति नम्रत्वं, हीरोऽयं कनकोपरि।। 488 ।। ऐश्वर्यशाली होने पर भी सन्तोष, यौवन होने पर भी संयमशील बने रहना, पाण्डित्य होने पर भी विनम्रतापूर्वक रहना ये तीनों सोने के ऊपर जड़े हुए हीरे के समान (बहुमूल्य) माने जाते हैं। अर्ह नातिगुरुपीति,-विरतिनिजयो विति। धर्मश्रुतिर्गुणासक्तिः, सद्यो यच्छति निर्वृतिम् ।। 489।। अरिहन्त के चरणों में नमन, गुरुजनों के प्रति प्रीति, स्वभार्या में विरति (आसक्ति का अभाव), धर्म श्रवण एवं गुणों के प्रति आसक्ति ये शीघ्र ही व्यक्ति को पूर्णता की ओर ले जाते हैं। SONRSO9005888888%ERBOOROSSONGSOSORRORISORRHO869889BSSWORRORRBSORB88388ROORNARENAMOROUSHBOOROORANSIB8000MBORMISSROOGammammoon Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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