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________________ राजप्रश्नीयसूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन : ७३ मुरजविशेषः), आलिग (मुरज वाद्यविशेष) कुस्तुंब (चर्मावनद्धपुटो वाद्यविशेषः), गोमुखी, मर्दल (उभयतः सम), वीणा, विपंजी (त्रितंत्री वीणा), वल्लकी (सामान्यतो वीणा), महती, कच्छभी (भारती वीणा), चित्रवीणा, बद्धीस, सुघोषा, नंदिघोषा, भ्रामरी, षड्भ्रामरी, वरवादनी (सप्ततंत्री वीणा), तूणा, तुम्बवीणा (तुंबयुक्त वीणा), आमोट, झंझा, नकुल, मुकुन्द (मुरज वाद्यविशेष), हुडुक्का , विचिक्की, करटा, डिंडिम, किणित, कडंब, दर्दर, दर्दरिका (यस्य चतुर्भिश्चरणैखस्थानं भुवि स गोधाचर्मावनद्धो, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, १०१), कलशिका, महुया, तल, ताल, कांस्यताल, रिगिसिका (रिंगिसिगिका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति), लत्तिया, मगरिका, शिशुमारकिा, वंश, वेणु, वाली (तूणविशेषः, स हि मुखे दत्वा वाद्यते), परिलि और बद्धक (पिरलीबद्धकौ तूणरूप वाद्यविशेषौ)। सूर्याभदेव द्वारा प्रस्तुत अभिनय का स्वरूप सूर्याभदेव ने हर्षित चित्त से महावीर को वन्दन कर निवेदन किया कि हे भदन्त ! मैं आपकी भक्तिवश गौतम आदि निर्ग्रन्थों के सम्मुख इस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति एवं दिव्य देवप्रभाव तथा बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि को प्रस्तुत करना चाहता हूँ। सूर्याभदेव के इस निवेदन पर भगवान महावीर ने उनके कथन का न आदर ही किया और न उसकी अनुमोदना ही की, अपितु मौन रहे। तब सूर्याभदेव ने भगवान महावीर से दो तीन बार पुनः इसी प्रकार निवेदन किया और ऐसा कहकर उसने भगवान महावीर की प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन-नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशा में गया। वैक्रियसमुद्घात करके बहुस्मरणीय भूमिभाग की रचना की, जो समतल था एवं मणियों से सुशोभित था। उस सम तथा रमणीय भूमि के मध्यभाग में एक प्रेक्षागृह (नाट्यशाला) की रचना की, जो सैकड़ों स्तम्भों पर सन्निविष्ट था। उस प्रेक्षागृह के अन्दर रमणीय भूभाग, चन्दोवा, रंगमंच तथा मणिपीठिका की रचना की और फिर उसने उस मणिपीठिका के ऊपर पादपीठ, छत्र आदि से युक्त सिंहासन की रचना की जिसका ऊर्ध्व भाग मुक्तादामों से सुशोभित हो रहा था। तब सूर्याभदेव ने भगवान महावीर को प्रणाम किया और कहा हे भगवन् ! मुझे आज्ञा दीजिए ऐसा कहकर तीर्थंकर की ओर मुख कर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। नाट्यविधि प्रारम्भ करने के लिए उसने श्रेष्ठ आभूषणों से युक्त अपनी दाहिनी भुजा को लम्बवत फैलाया, जिससे एक सौ आठ देवकुमार निकले। वे देवकुमार युवोचित गुणों से युक्त नृत्य के लिए तत्पर तथा स्वर्णिम वस्त्रों से सुसज्जित थे। तदनन्तर सूर्याभदेव ने विभिन्न आभूषणों से युक्त बायीं भुजा को लम्बवत फैलाया। उस भुजा से एक सौ आठ देवकुमारियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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