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________________ ५४ मन के पवित्रीकरण की मनोवैज्ञानिक विधि पुनः मन को अपवित्र नहीं होने देने के लिए भी मन की वृत्तियों को देखना जरूरी है। क्योंकि यह मन को दुष्प्रवृत्तियों से बचाने की एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मन एक ही समय में द्रष्टा और कर्ता की दो भूमिकाओं का निर्वाह नहीं कर सकता है। इसलिये कहा गया अप्पमत्तो कामेहं उवरतो पावकम्मेहिं (१/२/१/१०९), सव्वतो पमत्तस्य भयं सव्वतो अप्पमत्तस्स णत्थि भयं (१/३/१/१२९), जो अप्रमत्त है वह कामनाओं से और पाप कर्मों से उपरत है, प्रमत्त को ही विषय-विकार में फँसने का भय है, अप्रमत्त को नहीं। अप्रमत्तता या सम्यक् द्रष्टा की अवस्था में पापकर्म बन्ध नहीं होता है, इसीलिए कहा गया- सम्मत्तदंसी न करेति पावं (१/३/२/११२) सम्यकद्रष्टा कोई पाप नहीं करता है। आचारांगसूत्र में मन को जानने अथवा अप्रमत्त चेतना की जो बात बार-बार कही गई है वह मन को वासनामुक्त करने का या मन के पवित्रीकरण का एक ऐसा उपाय है जिसकी प्रामाणिकता आधुनिक मनोविज्ञान के प्रयोगों से सिद्ध हो चुकी है। जब साधक अप्रमत्त चेतना से मुक्त होकर द्रष्टाभाव में स्थित होता है तब सारी वासनाएँ और सारे आवेग स्वत: शिथिल हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र यह कहकर भी 'आयंक दंसी न करेह पावं' पुनः एक मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया गया है जो अपनी पीड़ा या वेदना को देख लेता है, समझ लेता है। उसके लिये भी पापकर्म में फँसना एक मनोवैज्ञानिक असंभावना बन जाती है। जब व्यक्ति पापकर्म या हिंसा जनित पीड़ा का स्वयं आत्मनिष्ठ रूप में अनुभव करता है, हिंसा करना उसके लिए असम्भव हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकार पाप से विरत होने के लिए मनोवैज्ञानिक सत्यों पर अधिष्ठित पद्धति प्रस्तुत करता है। धर्म की मनोवैज्ञानिक व्याख्या आचारांगसूत्र में धर्म क्या है? इसके दो निर्देश हमें उपलब्ध होते है? प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में अहिंसा को शाश्वत, नित्य और शुद्ध धर्म कहा गया है (सव्वे पाणा सव्वेभता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा- एस धम्मे सुद्धे, नितिए, सासए, समेच्च लोयं खेतण्णेहिं पवेदिति (१/४/१/१३२) और प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें अध्याय के तीसरे उद्देशक में समता को धर्म कहा गया है (समियाए धम्मे आरिएहिं पवेदिति -१/८/३)। वस्तुतः धर्म की ये दो व्याख्यायें दो दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अहिंसा व्यावहारिक व समाज सापेक्ष धर्म है, जबकि वैयक्तिक एवं आंतरिक दृष्टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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