________________
आचारांगसूत्र की मनोवैज्ञानिक दृष्टि : ५३
दृष्टि के परिचायक हैं। वस्तुतः ग्रन्थियों से मुक्ति ही साधना का लक्ष्य है (गंथेहिं विवत्तेहिं आयुकालस्सपारए १/८/८/२७) जो ग्रन्थियों से रहित है वही निर्ग्रन्थ है। निर्ग्रन्थ होने का अर्थ है राग-द्वेष या आसक्ति रूपी गाँठ का खुल जाना। जीवन में अन्दर और बाहर से एकमय हो जाना, मुखौटा की जिन्दगी से दूर हो जाना। क्योंकि ग्रन्थि का निर्माण होता है- रागभाव से, आसक्ति से। इस प्रकार आचारांगसूत्र एक मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रस्तुत करता है। आचारांगसूत्र के अनुसार बंधन और मुक्ति के तत्त्व बाहरी नहीं, आंतरिक हैं। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि बंधप्पमोक्खो तुज्झऽज्झत्थेव - १/५/२/१५५ बंधन और मोक्ष हमारे अध्यवसायी किवां मनोवृत्तियों पर निर्भर हैं। मानसिक बंधन ही वास्तविक बंधन है। वे गाँठे जिन्होंने हमें बाँध रखा है वे हमारे मन की ही गाँठे हैं। वह स्पष्ट उद्घोषणा करता है कि कामेसु गिद्धा णिचयंकरेति - १/३/२/११३ कामभोगो के प्रति आसक्ति से ही बंधन की सृष्टि होती है। वह गाँठ जो हमें बाँधती हैआसक्ति की गाँठ है, ममत्व की गाँठ है, अज्ञान की गाँठ है। इस आसक्ति से प्रत्युत्पन्न हिंसा व्यक्ति की और संसार की सारी पीड़ाओं का मूल स्रोत है, यही जीवन में नरक की सृष्टि करती है, जीवन को नारकीय बनाती है। (एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए -१/१/२/१५) आचारांगसूत्र के अनुसार विषय भोग के प्रति जो आतुरता है वही समस्त पीड़ाओं की जननी है। आतुरा परितावेंति १/१/२/११) यहाँ हमें स्पष्ट रूप से विश्व की समस्त पीड़ाओं का एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्राप्त होता है। सूत्रकार स्पष्ट रूप से कहता है कि आसं च छंदं च विगिंच धीरे। तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट। (१/२/४/८३) हे धीर पुरुष! विषय भोगों की आकांक्षा और तत्सम्बन्धी संकल्पविकल्पों का परित्याग करो। स्वयं इस कांटे को अपने अन्तःकरण में रखकर दुःखी हो रहे हो। इस प्रकार आचारांगसूत्र बंधन, पीड़ा या दुःख के प्रति एक आत्मनिष्ठ एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। वह कहता है जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा, ते आसवा (१/४/२/१३४) अर्थात् बाहर में जो बंधन के निमित्त हैं वे कभी मुक्ति के निमित्त बन जाते हैं और जो मुक्ति के निमित्त हैं वे ही कभी बंधन के निमित्त बन जाते हैं। इसका आशय यही है कि बंधन और मुक्ति का सारा खेल साधक के अन्तरंग भावों पर आधारित है। यदि इसी प्रश्न पर हम आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि आकांक्षाओं का उच्च स्तर ही मन में कुण्ठाओं को उत्पन्न करता है और उन कुण्ठाओं के कारण मनोग्रन्थियों की रचना होती है जो अन्ततोगत्वा व्यक्ति में मनोविकृतियाँ उत्पन्न करती हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org