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के ज्ञान लक्षण पर बल देता है। स्थूल-दृष्टि से देखने पर यही दोनों में अन्तर प्रतीत होता है, किन्तु अनुभूति (वेदना) और संकल्प यह दोनों लक्षण शरीराश्रित बद्धात्मा के हैं अत: शुद्ध आत्मा का लक्षण तो मात्र ज्ञान है, पुनः अनुभूति और संकल्प ज्ञान प्रसूत है, अतः ज्ञान ही प्रथम लक्षण सिद्ध होता है। वैसे आचारांगसूत्र में और परवर्ती जैन ग्रन्थों में भी मनोविज्ञान सम्मत इन तीनों लक्षणों को देखा जा सकता है, फिर भी आचारांगसूत्र में आत्मा के विज्ञाता स्वरूप पर बल देने का एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक कारण है। क्योंकि आत्मा की अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक अवस्था में पूर्णतः समभाव या समाधि की उपलब्धि संभव नहीं है, जब तक सुख दुःखात्मक वेदना की अनुभूति है या संकल्प-विकल्प चक्र चल रहा है आत्मा परभाव में स्थित होती है, चित्त में समाधि नहीं रहती है। आत्मा का स्वरूप या स्वभाव धर्म तो समता है जो केवल उसके ज्ञाता-द्रष्टा रूप में स्वरूपतः उपलब्ध होती है। वेदक और कर्ता रूप में वह स्वरूप उपलब्ध नहीं है, प्रयास साध्य है। मन का ज्ञान साधना का प्रथम चरण
निर्ग्रन्थ साधक के लक्षणों का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहता है- जे मणं परिजाणति से णिग्गंथे जे य मण अपावए- २/१५/७७८ जो मन को जानता है और उसे अपवित्र नहीं होने देता है वही निर्ग्रन्थ है। इस प्रकार निर्ग्रन्थ श्रमण की साधना का प्रथम चरण है- मन को जानना और दूसरा चरण हैमन को अपवित्र नहीं होने देना। मन की शुद्धि भी स्वयं मनोवृत्तियों के ज्ञान पर निर्भर है। मन को जानने का मतलब है अन्दर झाँककर अपनी मनोवृत्तियों को पहचानना, मन की ग्रंथियों को खोजना, यही साधना का प्रथम चरण है। बिमारी का ज्ञान या बिमारी का निदान, बिमारी से छुटकारा पाने के लिए आवश्यक है। आधुनिक मनोविज्ञान की मनोविश्लेषण-विधि में भी मनोग्रंथियों से मुक्त होने के लिए उनका जानना आवश्यक माना गया है। अन्तर्दर्शन जहाँ आधुनिक मनोविज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण विधि मानी गयी है, वहीं उसे निर्ग्रन्थ साधना का प्रथम चरण बताया गया है। वस्तुत: आचारांगसूत्र की साधना अप्रमत्तता की साधना है और यह अप्रमत्तता अपनी चित्तवृत्तियों के प्रति सतत् जागरूकता है। चित्तवृत्तियों का दर्शन ही सम्यक्-दर्शन है, स्व-स्वभाव में रमण है। आधुनिक मनोविज्ञान जिस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिये मनोग्रन्थियों के तोड़ने की बात कहता है उसी प्रकार जैन दर्शन भी आत्मशुद्धि के लिये ग्रन्थि-भेद की बात कहता है। ग्रन्थि, ग्रन्थि-भेद और निर्ग्रन्थ शब्द के प्रयोग स्वयं आचारांगसूत्र की मनोवैज्ञानिक
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