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आचारांगसूत्र की मनोवैज्ञानिक दृष्टि : ५५
समभाव ही धर्म है। सैद्धान्तिक दृष्टि से अहिंसा और समभाव में अभेद है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से वे अलग हैं। समभाव की बाह्य अभिव्यक्ति अहिंसा बन जाती है और यही अहिंसा जब स्वकेन्द्रित (स्व-दया) होती है तो समभाव बन जाती है। समत्व या समता धर्म क्यों?
यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि समता को धर्म क्यों माना जाये? जैन परम्परा में धर्म की व्याख्या वत्थु सहावो धम्मो के रूप में की गयी है, अतः समता तभी धर्म माना जा सकता है जबकि वह प्राणीय स्वभाव सिद्ध हो। आइये जरा इस प्रश्न पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें।
जैन दर्शन में मानव प्रकृति एवं प्राणीय प्रकृति का गहन विश्लेषण किया गया है। महावीर से जब यह पूछा गया कि आत्मा क्या है? और आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है? तब महावीर ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया था वह आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है। महावीर ने कहा था, आत्मा समत्वरूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य है। (आयाए समाइए आया समाइस्स अट्ठ। भगवतीसूत्र।) वस्तुतः जहाँ-जहाँ भी जीवन है, चेतना है, वहाँ-वहाँ समत्व संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य विषमताओं को दूर कर समत्व के लिए प्रयासशील बने रहना यह जीवन या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में जीवन गतिशील संतुलन है। (जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, पृ. २५९)। स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के संतुलन को भंग करते रहते हैं और जीवन अपनी क्रियाशीलता के द्वारा पुनः इस संतुलन को बनाने का प्रयास करता है। यह संतुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है। (फर्स्ट प्रिन्सपल-स्पेन्सर, पृ. ६६)। विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व के लिये संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के लिए संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के संस्थापन का प्रयास कहना ही अधिक उचित है। समत्व के संस्थापन एवं समायोजन की प्रक्रिया ही जीवन का महत्त्वपूर्ण लक्षण है। आचारांगसूत्र के अनुसार चेतना न तो जन्म है और न मृत्यु। चेतना इन दोनों से ऊपर है, जन्म और मृत्यु तो एक शरीर में उसके आगमन और ले जाने की सूचनाएँ भर हैं, वह इनसे अप्रभावित है। सच्चा चेतन जीवन तो अप्रमत्त दशा, समभाव में अवस्थिति है। आचारांगसूत्र में ही इसे स्वरूप में रमण कहा गया है।
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