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गुणस्थान सिद्धान्त : एक महत्त्वपूर्ण शोध-कार्य : २७
कह सकते हैं कि प्रथमतः गुणस्थान सिद्धान्त के मूल बीज श्वेताम्बर आगम साहित्य में ही रहे हुए हैं और उन्हीं के आधार पर आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र, षट्खण्डागम आदि में उत्तरोत्तर कर्म-निर्जरा की दस अवस्थाओं का विकास हुआ है। जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त के सुव्यवस्थित उल्लेख का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा में वह सर्वप्रथम जीवसमास, आवश्यकचूर्णि तथा तत्त्वार्थसूत्र की सिद्धसेनगणि की टीका में ही मिलता है। इनमें से जीवसमास लगभग पाँचवीं शती का है, शेष दोनों ही ग्रन्थ लगभग सातवीं शताब्दी के हैं। दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी सर्वप्रथम उल्लेख षटखण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में मिलता है, ये दोनों ग्रन्थ पाँचवीं शती के उत्तरार्ध या छठी शती के प्रारम्भ के हैं। इससे स्पष्ट रूप से यह भी फलित होता है कि गुणस्थान सिद्धान्त व्यवस्थित रूप में पाँचवीं शती के बाद ही अस्तित्व में आया है अन्यथा श्वेताम्बर आगम-साहित्य और तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में एवं नियुक्ति और भाष्यसाहित्य में कहीं तो कुछ संकेत अवश्य मिलते। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का प्रारम्भिक व्यवस्थित स्वरूप श्वेताम्बर साहित्य की अपेक्षा दिगम्बर साहित्य में पहले पाया जाता है और श्वेताम्बर आचार्यों की अपेक्षा दिगम्बर आचार्यों का अवदान इस सिद्धान्त के विकास में अधिक महत्त्वपूर्ण है।
मेरी दृष्टि में यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र तथा उसके स्वोपज्ञभाष्य में, वल्लभी-वाचना (५वीं शती) में अर्धमागधी आगमों का जो पाठ निर्धारण हुआ था, उसमें तथा अर्धमागधी आगमों की नियुक्तियों एवं भाष्यों में गुणस्थान सिद्धान्त की कहीं भी कोई व्यवस्थित चर्चा उपलब्ध नहीं है, मात्र कुछ अवस्थाओं के यत्र-तत्र कुछ संकेत हैं। यदि ये आचार्य उससे परिचित होते तो कहीं न कहीं उसका उल्लेख अवश्य करते। समवायांगसूत्र के १४वें समवाय की जिस गाथा में जीवस्थान के नाम से तथा आवश्यकनियुक्ति में जो १४ गुणस्थानों के नाम आए हैं, वे गाथाएँ परवर्ती प्रक्षेप हैं और संग्रहणीसूत्र से उद्धृत हैं। क्योंकि आठवीं शती में हरिभद्र ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में उसे संग्रहणी गाथा कहा है। दिगम्बर ग्रन्थ षट्खण्डागम में भी इन १४ अवस्थाओं को पहले जीवसमास के नाम से ही उल्लेखित किया गया है, बाद में उन्हें गुणस्थान नाम दिया गया है। अत: गुणस्थान की स्पष्ट अवधारणा ५वीं शती के अन्त में ही कभी अस्तित्व में आयी है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि कर्म-निर्जरा की दस अवस्थाओं से या आगमों में प्रकीर्ण रूप से उल्लेखित विभिन्न अवस्थाओं
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