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________________ २८. के त्रिकों या द्विकों से ही इसका विकास हुआ है। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि जहाँ अर्धमागधी आगम साहित्य मात्र समवायांगसूत्र की उस प्रक्षिप्त गाथा को छोड़कर गुणस्थान की अवधारणा का कहीं भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं करता है वहीं दिगम्बर परम्परा में मान्य शौरसेनी प्राकृत में रचित आगमतुल्य साहित्य में कषायपाहुड को छोड़कर षटखण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि प्राचीन माने जाने वाले ग्रन्थों में इस सिद्धान्त का व्यवस्थित एवं विकसित विवरण उपलब्ध होता है। मात्र यही नहीं आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी चाहे इस सिद्धान्त का विस्तृत उल्लेख न भी हो किन्तु उनके काल तक न केवल गुणस्थान सिद्धान्त का विकास हो चुका था, अपितु गुणस्थान, जीवस्थान और मार्गणास्थान के सह-सम्बन्धों का भी निर्धारण हो चुका था। यही कारण है कि कुन्दकुन्द आत्मतत्त्व के अनिर्वचनीय स्वरूप का उल्लेख करते हुए स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि आत्मा न जीवस्थान है, न गुणस्थान है एवं न मार्गणास्थान है। शौरसेनी आगम तुल्य साहित्य में मात्र कषायपाहुड ही एक ऐसा अपवाद है, जिसमें गुणस्थान सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि कषायपाहुड को छोड़कर शेष शौरसेनी आगमतुल्य साहित्य ५वीं शती के बाद के ही हैं। गुणस्थानों का जीवस्थानों, मार्गणास्थानों तथा आठ कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों के उदय, उदीरणा, सत्ता, बंध और निर्जरा से क्या सह-सम्बन्ध है, इसका उल्लेख जहाँ श्वेताम्बर परम्परा में कर्मग्रन्थों और पंचसंग्रह में उपलब्ध होता है, वहीं दिगम्बर परम्परा में यह विवेचन मुख्यतः षट्खण्डागम, गोम्मटसार (१०वीं शती) और दिगम्बर प्राकृत एवं संस्कृत पंचसंग्रहों में उपलब्ध है, लेकिन ये ग्रन्थ अपेक्षाकृत परवर्ती ही हैं। ___ मात्र यही नहीं कर्मसिद्धान्त की इस चर्चा में श्वेताम्बर परम्परा में कर्मग्रन्थों की मान्यता में और आगमिक मान्यता में मतभेद भी नजर आते हैं, साथ ही श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में भी कुछ मतभेद पाये जाते हैं। जिसका उल्लेख पं. सुखलालजी ने एवं पूज्या साध्वी दर्शनकलाजी ने भी किया है, इसके अतिरिक्त यह उल्लेख कषायपाहुड और षटखण्डागम की भूमिका में दिगम्बर विद्वानों ने भी किया है। श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा को स्पष्टतः प्रस्तुत करने वाला प्रथम ग्रन्थ जीवसमास है। तुलनात्मक आधार पर मैंने और कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भी यह माना है कि जीवसमास ही षट्खण्डागम का आधारभूत ग्रन्थ रहा है। जीवसमास की शैली कर्मग्रन्थों से भिन्न षट्खण्डागम के समान है, क्योंकि दोनों ग्रन्थ आठ अनुयोगद्वारों के आधार पर ही गुणस्थानों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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