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गुणस्थान सिद्धान्त पर एक महत्त्वपूर्ण शोध-कार्य
गुणस्थान सिद्धान्त जैन दर्शन का एक अति महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। यद्यपि जैन दर्शन में इस सिद्धान्त का कालक्रम में विकास हुआ है, फिर भी इसके महत्त्व और मूल्यवत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। न केवल जैन कर्मसिद्धान्त, अपितु जैनधर्म-दर्शन की विभिन्न तात्त्विक एवं साधनात्मक अवधारणाओं को गुणस्थान के सन्दर्भ में ही विवेचित किया जाता है। यह सुस्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त को समझे बिना जैन दर्शन की विविध अवधारणाओं को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है। यही कारण है कि प्राचीनकाल से लेकर आज तक जैन आचार्य गुणस्थान की अवधारणा को स्पष्ट करने का प्रयत्न करते रहे हैं।
इस गुणस्थान सिद्धान्त को स्पष्ट करने की दृष्टि से वर्तमान युग में भी अनेक प्रयत्न हुए हैं। उनमें अमोलकऋषिजी कृत 'गुणस्थानरोहण' एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ में गुणस्थान सिद्धान्त को २५२ द्वारों (विभागों) में तथा लगभग ५०० पृष्ठों में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया, फिर भी यह ग्रंथ परम्परागत दृष्टि पर ही आधारित है। इस सिद्धान्त पर शोधपरक दृष्टि से जो कार्य हुए हैं, उनमें कर्मग्रन्थ की भूमिका के रूप में पण्डित सुखलालजी का नाम सर्वोपरि हैं, किन्तु यह प्रयत्न कुछ सीमित पृष्ठों में ही हुआ है और तुलनात्मक दृष्टि से लिखा गया है। उन्होंने इसके क्रमिक विकास की कोई चर्चा नहीं की है। इसके पश्चात् शोधपरक दृष्टि से गुणस्थान सिद्धान्त के क्रमिक विकास का विवेचन मैंने अपने ग्रंथ 'गुणस्थान सिद्धान्तः एक विश्लेषण' में किया है। यद्यपि प्राचीन जैन साहित्य के आलोक में गुणस्थान सिद्धान्त के क्रमिक विकास को स्पष्ट करने का यह प्रथम प्रयास था। लगभग १५० पृष्ठों में रचित इस ग्रन्थ में गुणस्थान से सम्बन्धित प्राचीन जैन साहित्य का आलोडन तो हुआ, फिर भी गुणस्थान सिद्धान्त के सभी पक्षों का तथा तत्सम्बन्धी सम्पूर्ण साहित्य का आलोडन सम्भव नहीं हो सका था।
मेरी यह हार्दिक अभिलाषा थी कि इस सिद्धान्त पर विस्तृत रूप से शोधात्मक दृष्टि के साथ कोई कार्य हो। जब पूज्या साध्वी दर्शनकलाश्री जी ने
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