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________________ १४८ : स्पष्टीकरण करके 'उदयनिस्सया जीवा' और 'उदयजीवावियाहिया' ऐसे दो अतिरिक्त पाठ दिए हैं जो जल की सजीवता बताते हैं, जबकि पृथ्वीकाय के सन्दर्भ में ऐसे पाठ क्यों नहीं हैं जिससे उसका जीवत्व सिद्ध हो। क्या इसका तात्पर्य यह तो नहीं है कि पृथ्वीतत्त्व सजीव नहीं है, दूसरे जिस प्रकार उदक के आश्रित जीव हैं वैसे ही पृथ्वी के आश्रित जीव हैं यह क्यों नहीं कहा गया, जबकि पृथ्वी पर भी तो अनेक प्रकार के जीव जन्तु रहे हुए हैं। किन्तु यहाँ एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि पृथ्वी आश्रित जीव पृथ्वी के ऊपर होते हैं अत: ये उससे अलग माने जा सकते हैं, जबकि जलाश्रित जीव जल के अन्दर रहते हैं अत: वे भी आश्रित माने गये हैं वे जल के बाहर जीवित भी नहीं रहते, जैसे मछली। पुनः उनकी यह भी जिज्ञासा है जिस प्रकार 'उदकनिस्सयाजीवा' कहा गया उसी प्रकार 'अग्गिनिस्सयाजीवा' नहीं कहा गया, इससे भी दो प्रकार की शंका उपस्थित होती है, क्या अग्नि स्वयं जीव रूप नहीं है अथवा अग्नि के आश्रित जीव नहीं है। जबकि अग्निकाय के सन्दर्भ में काष्ठ, गोबर, कचरे आदि मिश्रित जीव कहे गये हैं। जहाँ तक वायुकाय का प्रश्न है आचारांगसूत्र की एक विशेषता यह देखने को मिलती है कि वह वनस्पतिकाय और तदुपरान्त त्रसकाय की विवेचना के पश्चात ही वायुकाय, की विवेचना करता है, सम्भवतः इसका कारण यह हो सकता है कि आचारांगसूत्र की दृष्टि में वायु को त्रस (गतिशील) माना गया हो और इसी के कारण त्रस की विवेचना के पश्चात् वायुसे सम्बन्धित उद्देशक हो। यह भी सत्य है कि वायुकाय के सन्दर्भ में भी 'वायुनिस्सयाजीवा' एवं 'वायुजीवावियाहिया' ऐसे पाठ नहीं हैं। __ इस आधार पर यह चिन्तन भी चला कि आगम में जहाँ वायु या वायुकाय अग्नि और अग्निकाय या पृथ्वी एवं पृथ्वीकाय ऐसे शब्दों का प्रयोग है, वहाँ उनका अर्थ जीव रूप में ग्रहण नहीं करके केवल उन्हीं स्थानों पर उनके जीवत्व का ग्रहण करना, जहां पृथ्वीकायिक जीव, अग्निकायिक जीव या वायुकायिक जीव ऐसे प्रयोग हों, लेकिन जहाँ पृथ्वीशस्त्र या पृथ्वीकाय मात्र का उल्लेख है वहाँ भी उनके जीवत्व का प्रतिपादन है ऐसा निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि शस्त्र सचित्त और अचित्त दोनों हो सकते हैं, इसी प्रकार काय भी सचित्त और अचित्त दोनों हो सकते हैं। शस्त्र और काय जीवद्रव्य या जीवतत्त्व या जीवतत्त्व के द्वारा जब तक शरीर रूप में ग्रहीत हैं, वे तभी तक सजीव हैं, अन्यथा नहीं, ऐसी मेरी व्यक्तिगत समझ है। सारी पृथ्वी, समस्त जल, समस्त अग्नि ऊष्मा या समस्त वायु जीवित ही है या सजीव ही है - ऐसा एकान्त नियम नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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