SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्जीवनिकाय की अवधारणा : एक वैज्ञानिक विश्लेषण : १४९ आज विज्ञान ने चाहे जितनी प्रगति कर ली हो, वह जड से जीवन का विकास नहीं कर सकता है, जीवन्त तत्त्व से ही जीवन का विकास होता है। यद्यपि जीवन्त तत्त्वों में ऐसी शक्ति अवश्य है कि जड़ तत्त्वों को ग्रहण कर अपने सम्पर्क से उन्हें भी जीवन्त बना दे, जैसे किसी व्यक्ति या प्राणी द्वारा ग्रहीत कैल्शियम (चूना) उसके शरीर रूप में परिणत होकर जीवन्त बन जाता है। आचारांगसूत्र में वनस्पति सजीव है यह सिद्ध करने के लिए प्राणी शरीर से जिस प्रकार उसकी तुलना की है, उस प्रकार की तुलना पृथ्वी अप, अग्नि और वायु के सन्दर्भ में नहीं है। इनके सन्दर्भ में केवल इतना कहा गया है, जीवन्त स्थिति में शस्त्र द्वारा इनकी हिंसा करने पर वैसी ही वेदना होती है जैसी एक पंगु एवं मूक व्यक्ति को होती है, ये जीव पीड़ा का अनुभव तो करते हैं, लेकिन पीड़ा की अभिव्यक्ति नहीं कर पाते हैं, यह बात समस्त एकेन्द्रिय जीवों के सन्दर्भ में सत्य है, वे चाहे पृथ्वीकायिक जीव हों, अप्कायिक जीव हों, अग्निकायिक जीव हों, वायुकायिक जीव हों या वनस्पतिकायिक जीव हों। द्वीन्द्रिय आदि जीवों में पीडा की अभिव्यक्ति जितनी स्पष्ट देखी जाती है उतनी इनमें नहीं। फिर भी जहाँ जीवन है, चेतना है, वहाँ सुख-दुःख की अनुभूति तो हैं ही। ___आचारांगसूत्र के प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशक में जो जल को जीव कहा गया है, मेरी दृष्टि में उसका हेतु यह हो सकता है कि जल जीवन्त तत्त्वों को स्वयं आकर्षित कर शीघ्र ही जीवन्त हो जाता है, जबकि पृथ्वी आदि जीवन्त प्राणियों के शरीर के रूप में ग्रहीत होने पर ही जीवन्त होते हैं। सत्य तो केवलीगम्य है। विद्वानों से अनुरोध है कि इस सन्दर्भ में विमर्शपूर्वक प्रकाश डालें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy