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________________ १२२ १०० से अधिक कथाएं हैं। पिण्डनियुक्ति और उसकी मलयगिरि की टीका में भी लगभग १०० कथाएं दी गई हैं। इस प्रकार इस कालखण्ड में न केवल मूल ग्रन्थों और उनकी टीकाओं में अवान्तर कथाएं संकलित हैं, अपितु विभिन्न कथाओं का संकलन करके अनेक कथाकोशों की रचना भी जैनधर्म की तीनों शाखाओं के आचार्यों और मुनियों द्वारा की गई है-जैसे-हरिषेण का 'बृहत्कथाकोश', श्रीचन्द्र का 'कथा-कोश', भद्रेश्वर की 'कहावली', जिनेश्वरसूरि का 'कथा-कोष प्रकरण' देवेन्द्र गणि का 'कथामणिकोष', विनयचन्द्र का 'कथानक कोश', देवचन्द्रसूरि अपरनाम गुणभद्रसूरि का 'कथारत्नकोश' नेमिचन्द्रसूरि का आख्यानकमणिकोश' आदि। इसके अतिरिक्त प्रभावकचरित्र', प्रबन्धकोश', 'प्रबन्धचिन्तामणी' आदि। इसके अतिरिक्त प्रभावकचरित्र', प्रबन्धकोश', 'प्रबन्धचिन्तामणि' आदि अर्ध-ऐतिहासिक कथाओं के संग्रह रूप ग्रन्थ भी इसी काल के हैं। इसी काल के अन्तिम चरण से प्राय: तीर्थों की उत्पत्ति कथाएं और पर्वकथाएं भी लिखी जाने लगी थीं। पर्व कथाओं में महेश्वरसूरि की ‘णाणपंचमीकहा' (वि०सं० ११०९) तथा तीर्थ कथाओं में जिनप्रभ का 'विविधतीर्थकल्प' भी इसी कालखण्ड के ग्रन्थ हैं। यद्यपि इसके पूर्व भी लगभग दशवीं शती में 'सारावली प्रकीर्णक' में शत्रुजय तीर्थ की उत्पत्ति की कथा वर्णित है। यद्यपि अधिकांश पर्व कथाएं और तीर्थोत्पत्ति की कथाएं उत्तर मध्यकाल में ही लिखी गई हैं। इसी कालखण्ड में हार्टले की सूचनानुसार ब्राह्मण परम्परा के दुर्गसिंह के पंचतंत्र की शैली का अनुसरण करते हुए वादीभसिंहसूरि नामक जैन आचार्य ने भी पंचतंत्र की रचना की थी। ज्ञातव्य है कि जहां पूर्व मध्यकाल में कथाएं संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में लिखी गईं, वहीं उत्तर मध्यकाल में अर्थात् ईसा की १६वीं शती से १८वीं शती तक के कालखण्ड में मरुगुर्जर भी कथा लेखन का माध्यम बनी है। अधिकांश तीर्थमहात्म्य विषयक कथाएँ, व्रत, पर्व और पूजा विषयक कथाएँ इसी कालखण्ड में लिखी गई हैं। इन कथाओं में चमत्कारों की चर्चा अधिक है। साथ ही अर्ध-ऐतिहासिक या ऐतिहासिक रासो भी इसी कालखण्ड में लिखे गये हैं। इसके पश्चात् आधुनिक काल आता है, जिसका प्रारम्भ १९वीं शती से माना जा सकता है। जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं यह काल मुख्यतः हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं में रचित कथा-साहित्य से सम्बन्धित है। इस काल में मुख्यत: हिन्दी भाषा में जैन कथाएँ और उपन्यास लिखे गये। इसके अतिरिक्त कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने गुजराती भाषा को भी अपने कथालेखन का माध्यम बनाया। क्वचित् रूप में मराठी और बंगला में भी जैन कथाएँ लिखी गईं। बंगला में जैन कथाओं का श्रेय भी गणेश ललवानी को जाता है। इस युग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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