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________________ जैन कथा-साहित्य:एक समीक्षात्मक सर्वेक्षण : १२१ इस काल के कथा-साहित्य की विशेषता यह है कि इसमें अन्य परम्पराओं से कथा-वस्तु को लेकर उसका युक्ति-युक्त करण किया गया है, जैसे पउमचरियं में रामचरित्र में सुग्रीव हनुमान को वानर न दिखाकर वानरवंश के मानवों के रूप में चित्रित किया गया है। इसी प्रकार रावण को राक्षस न दिखाकर विद्याधर वंश का मानव ही माना गया है। कैकयी, रावण आदि के चरित्र को अधिक उदात्त बताया गया है। साथ ही धूर्ताख्यान की कथा के माध्यम से हिन्दू पौराणिक एवं अवैज्ञानिक कथाओं की समीक्षा भी व्यंग्यात्मक शैली में की गई है। राम और कृष्ण को स्वीकार करके भी उनको ईश्वर के स्थान पर श्रेष्ठ मानव के रूप में ही चित्रित किया गया है। दूसरे आगमिक व्याख्याओं विशेष रूप से भाष्यों और चूर्णियों में जो कथाएं हैं, वे जैनाचार के नियमों और उनकी आपवादिक परिस्थितियों के स्पष्टीकरण के निमित्त हैं। जैन कथा-साहित्य के कालखण्डों में तीसरा कालआगमों की संस्कृत टीकाओं तथा जैन पुराणों का रचना काल है। इसकी कालावधि ईसा की ८ वीं शती से लेकर ईसा की १४ वीं शती मानी जा सकती है। जैन कथा-साहित्य की रचना की अपेक्षा से यह काल सबसे समृद्ध काल है। इस कालावधि में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय तीनों ही परम्पराओं के आचार्यों और मुनियों ने विपुलमात्रा में जैन कथा साहित्य का सृजन किया है। यह कथा-साहित्य मुख्यत: चरित्र-चित्रण प्रधान है, यद्यपि कुछ कथा-ग्रन्थ साधना और उपदेश प्रधान भी हैं। जो ग्रन्थ चरित्र-चित्रण प्रधान हैं वे किसी रूप में प्रेरणा प्रधान तो माने ही जा सकते हैं। दिगम्बर परम्परा के जिनसेन (प्रथम) का आदिपुराण, गुणभद्र का उत्तरपुराण, रविषेण का पद्मचरित्र, जिनसेन द्वितीय का हरिवंशपुराण आदि इसी कालखण्ड की रचनाएँ हैं। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र की समराइच्चकहा, कौतूहल कवि की लीलावईकहा, उद्योतनसूरि की कुवलयमाला, सिद्धर्षि की उपमितिभवप्रपंचकथा, शीलांक का चउपन्नमहापुरिसचरियं, धनेश्वरसूरि का सुरसुन्दरीचरियं, विजयसिंहसूरि की भुवनसुन्दरीकथा, सोमदेव का यशस्तिलकचम्पू, धनपाल की तिलकमंजरी, हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, जिनचन्द्र की संवेगरंगशाला, गुणचन्द्र का महावीरचरियं एवं पासनाहचरियं, देवभद्र का पाण्डवपुराण आदिअनेक रचनाएं हैं। इस कालखण्ड में अनेक तीर्थंकरों के चरित्र-कथानकों को लेकर भी प्राकृत और संस्कृत में अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं, यदि उन सभी का नामनिर्देश भी किया जाये तो आलेख का आकार बहुत बढ़ जायेगा। इस कालखण्ड की स्वतंत्र रचनाएं शताधिक ही होंगी। __यहां यह ज्ञातव्य है कि इस काल की रचनाओं में पूर्वभवों की चर्चा प्रमुख रही है। इससे ग्रन्थों के आकार में भी वृद्धि हुई है, साथ ही एक कथा में अनेक अन्तर कथाएं भी समाहित की गई हैं। इसके अतिरिक्त इस काल के अनेक स्वतंत्र ग्रन्थों और उनकी टीकाओं में भी अनेक कथाएं संकलित की गई हैं- उदाहरण के रूप में हरिभद्र की दशवैकालिक टीका में ३० और उपदेशपद में ७० कथाएं गुम्फित हैं। संवेगरंगशाला में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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