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जैन कथा-साहित्य: एक समीक्षात्मक सर्वेक्षण : ११५
आत्मशांति की उपलब्धि हो या जो वासना और इच्छाजन्य विकल्पों को दूर कर निर्विकल्पदशा में ले जाये वह निर्वेदनी कथा है। ये व्याख्याएँ मैंने अपनी दृष्टि के आधार पर की हैं। पुनः धर्मकथा के इन चारों विभागों के भी चार-चार उपभेद किये गये हैं किन्तु विस्तारभय से यहां उस चर्चा में जाना उचित नहीं होगा। यहां मात्र नाम निर्देश कर देना ही पर्याप्त होगा।
(अ) अक्षेपनी कथा के चार भेद हैं- १. आचार २. व्यवहार ३. प्रज्ञप्ति और ४. दृष्टिवाद
(ब) विक्षेपनी कथा के चार भेद हैं- १.स्वमत की स्थापना कर, फिर उसके अनुरूप परमत का कथन करना २.पहले परमत का निरूपण कर, फिर उसके आधार पर स्वमत का पोषण करना ३.मिथ्यात्व के स्वरूप की समीक्षा कर फिर सम्यक्त्व का स्वरूप बताना और ४. सम्यक्त्व का स्वरूप बताकर फिर मिथ्यात्व का स्वरूप बताना।
(स) संवेगिनी कथा के चार भेद हैं- १. शरीर की अशुचिता, २. संसार की दुःखमयता और ३.संयोगों का वियोग अवश्यंभावी है- ऐसा चित्रण कर ४.वैराग्य की ओर उन्मुख करना।
(द) निर्वेदनी कथा का स्वरूप हैं- आत्मा के अनन्त चतुष्टय का वर्णन कर व्यक्ति में ज्ञाता-द्रष्टाभाव या साक्षीभाव उत्पन्न करना। विभिन्न भाषाओं में रचित जैन कथा-साहित्य
भाषाओं की दृष्टि से विचार करें तो जैन कथा-साहित्य प्राकृत, संस्कृत, कन्नड़, तमिल, अपभ्रंश, मरुगुर्जर, हिन्दी, मराठी, गुजराती और क्वचित् रूप में बंगला में भी लिखा गया है। मात्र यही नहीं प्राकृत और अपभ्रंश में भी उन भाषाओं के अपने विविध रूपों में मिलता है। उदाहरण के रूप में प्राकृतों के भी अनेक रूपों यथाअर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि में जैन कथा-साहित्य लिखा गया है और बहुत कुछ रूप में आज भी उपलब्ध है। गुणाढ्य ने अपनी बृहत्कथा पैशाची प्राकृत में लिखी थी, यद्यपि दुर्भाग्य से आज वह उपलब्ध नहीं है। आज जो जैन कथा-साहित्य विभिन्न प्राकृत-भाषाओं में उपलबध है उनमें सबसे कम शौरसेनी में मिलता है, उसकी अपेक्षा अर्धमागधी या महाराष्ट्री प्रभावित अर्धमागधी में अधिक है, क्योंकि उपलब्ध आगम और प्राचीन आगमिक व्याख्याएं इसी भाषा में लिखित हैं। महाराष्ट्री प्राकृत में जैन कथा-साहित्य उन दोनों भाषाओं की अपेक्षा विपुल मात्रा में प्राप्त होता है और इसके लेखन में श्वेताम्बर जैनाचार्यों एवं मुनियों का योगदान अधिक है।
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