SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ भी प्रचलित हैं, किन्तु ऐसी प्रेमाख्यान जैन परम्परा में नहीं है, उसमें पशु-पक्षी, पेड़पौधे, फल-फूल आदि के रूपक भी तप-संयम की प्रेरणा के हेतु ही हैं। जैन कथा-साहित्य का सामन्य स्वरूप जैन कथा-साहित्य बहुआयामी और व्यापक है। रूपक, आख्यानक, संवादलघुकथाएँ, एकाकी, नाटक, खण्डकाव्य, चरितकाव्य और महाकाव्य से लेकर वर्तमान कालीन उपन्यास शैली तक की सभी कथा-साहित्य की विधाएँ उसके अन्तर्गत आ जाती हैं। आज जब हम जैन कथा-साहित्य की बात करते हैं, तो जैन परम्परा में लिखित इन सभी विधाओं के साहित्य इसके अन्तर्गत आते हैं। अत: जैन कथा-साहित्य बहुविध और बहुआयामी है। यह कथा-साहित्य भी गद्य, पद्य और गद्य-पद्य मिश्रित चम्पू इन तीनों रूपों में मिलता है। मात्र इतना ही नहीं वह भी विविध भाषाओं और विविध कालों में लिखा जाता रहा है। जैन साहित्य में कथाओं के विविध प्रकार जैन आचार्यों ने विविध प्रकार की कथाएँ तो लिखीं, फिर भी उनकी दृष्टि विकथा से बचने की ही रही है। दशवैकालिकसूत्र में कथाओं के तीन वर्ग बताये गये हैं- अकथा, कथा और विकथा। उद्देश्यविहीन, काल्पनिक और शुभाशुभ की प्रेरणा देने से भिन्न उद्देश्यवाली कथा को अकथा कहा गया है, जबकि कथा नैतिक उद्देश्य से युक्त कथा है और विकथा वह है जो विषय-वासना को उत्तेजित करे। विकथा के अन्तर्गत जैन आचार्यों ने राजकथा, भातकथा, स्त्रीकथा और देशकथा को लिया है। कहीं-कहीं राजकथा के स्थान पर अर्थकथा और स्त्रीकथा के स्थान पर कामकथा का भी उल्लेख मिलता है। दशवैकालिकसत्र में अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और मिश्रकथा- ऐसा भी एक चतुर्विध वर्गीकरण मिलता है और वहां इन कथाओं के लक्षण भी बताये गये हैं। यह वर्गीकरण कथा के वर्ण्य विषय पर आधारित है। पुनः दशवैकालिक में इन चारों प्रकार की कथाओं में से धर्मकथा के चार भेद किये गये हैं। धर्मकथा के वे चार भेद हैं- आक्षेपनी, विक्षेपनी, संवेगिनी और निर्वेदनी। टीका के अनुसार पापमार्ग के दोषों का उद्भावन करके धर्ममार्ग या नैतिक आचरण की प्रेरणा देना आक्षेपणी कथा है। अधर्म के दोषों को दिखाकर उनका खण्डन करना विक्षेपणी कथा है। वैराग्यवर्धक कथा संवेगिनी कथा है। एक अन्य अपेक्षा से दूसरों के दुःखों के प्रति करुणाभाव उत्पन्न करने वाली कथा संवेगिनी कथा है, जबकि जिस कथा से समाधिभाव और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy