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शंखेश्वर तीर्थ का इतिहास : १०३
नाभिनन्दनजिर्णोद्धार प्रबन्ध (ई०सन् १३३६) और उसके पश्चात् के अन्य तीर्थमालाओं में भी विविधतीर्थ में कथित शंखेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ के कथानक का यह उल्लेख यथावत् मिलता है। यद्यपि शीलांकाचार्य कृत 'चउप्पनमहापुरिसचरिअं (ई०स० ८६८), मल्लधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरि रचित नेमिनाहचरिअं (१२वीं शती), कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य कृत 'त्रिषष्टिश्लाकापुरुषचरित्र' (ई०सन् ११७२), मल्लधारगच्छीय देवप्रभसूरि कृत 'पाण्डव महाकाव्य' (ई० सन् १२१३) आदि ग्रन्थों में भी उक्त कथानक प्राप्त होते हैं। इनमें नगर का नाम शंखपुर न बताकर आनंदपुर कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि परवर्ती काल में यह कथानक शंखेश्वर तीर्थ के साथ जोड़ दिया गया है। यहाँ इसे सर्वप्रथम किसने जोड़ा यह कह पाना कठिन है। शंखेश्वर पार्श्वनाथ के वर्तमान जिनालय के पूर्व इसी ग्राम में भगवान पार्श्वनाथ का इंटों का एक प्राचीन जिनालय था। जो आज भी एक खण्डहर के रूप में है - यह इस तीर्थ की प्राचीनता का पुरातात्त्विक आधार है। माना यह जाता है कि सिद्धराज जयसिंह के मंत्री दण्डनायक सज्जनसिंह ने शंखपुर में स्थित पार्श्वनाथ चैत्यालय का जीर्णोद्धार करवाया था। यह कार्य ई० सन् १०९८ के आस-पास सम्पन्न हुआ था। यद्यपि इस काल के ग्रंथों में इसकी कोई चर्चा नहीं है। इसकी जो भी चर्चा उपलब्ध होती है वह परवर्ती काल के ग्रंथों में ही मिलती है। वस्तुपालचरित्र से यह स्पष्ट होता है कि वस्तुपाल और तेजपाल ने भी शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनालय का जीर्णोद्धार करवाया था और चैत्य के शिखर पर स्वर्णकलश लगवाया था। कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि यह कार्य ई० सन् १२३० में सम्पन्न हुआ था, यद्यपि इस तिथि के सम्बन्ध में विद्वानों में कुछ मतभेद है। किन्तु जिनहर्षगणि कृत वस्तुपालचरित्र (वि०सं० १४९७) से यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुपाल इस जिनालय के जीर्णोद्धारकर्ता रहे हैं, उनका सत्ता काल ई० सन् की १३वीं शती का पूर्वार्ध है। पुन: जगडूशाहचरित्र महाकाव्य से ज्ञात होता है कि बीजूवाडा के राणा दुर्जनशाह ने भी इस मंदिर का जीर्णोद्धार लगभग ई० सन् १२४५ में करवाया था, किन्तु उसी ग्रन्थ में यह भी उल्लेख है कि १४वीं शती के अन्तिम दशक में अलाउद्दीन खिलजी ने इस तीर्थ को पूरी तरह विनष्ट कर दिया था, फिर भी मूलनायक की प्रतिमा को सुरक्षित कर लिया गया था। जनसाधारण का इस जिनबिम्ब एवं तीर्थ के प्रति अत्यन्त श्रद्धाभाव था और यही कारण है कि सम्राट अकबर द्वारा गुजरात विजय ई० सन् १५७२ के तुरन्त बाद ही जैनों ने उत्साहपूर्वक पुनः इस मंदिर का जीर्णोद्धार कार्य सम्पन्न किया और इसमें राज्य की ओर से न केवल दान प्राप्त हुआ, अपितु इसकी सुरक्षा के लिए अहमदाबाद के सेठ शांतिदास को शाहजहाँ के द्वारा शाही फरमान भी प्राप्त हुआ। यह जीर्णोद्धार गंधार (गुजरात) निवासी मानशाह द्वारा हुआ था और इसकी प्रतिष्ठा विजयसेन द्वारा हुई थी। ई० सन् १५९८ से १६४२
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