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________________ १०२ उसके आगमन का समाचार सुनकर कृष्ण भी अपनी सेना के साथ द्वारका से चले और राज्य की सीमा पर आकर डट गए। वहीं पर अरिष्टनेमि ने उनका पांचजन्य नामक शंख बजाया था, जिससे वह स्थान शंखपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जब दोनों पक्षों में युद्ध प्रारम्भ हुआ, तब जरासंध ने कृष्ण की सेना में महामारी फैला दी, जिससे उनकी सेना हारने लगी। इसी समय अरिष्टनेमि की सलाह पर कृष्ण ने तपस्या की और पाताल स्थित भावी तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्राप्त की। फिर उसका प्रतिमान्हवण कराया गया और उसी जल को सेना पर छिड़क दिया गया, जिससे महामारी शान्त हुई, उन्होंने जरासंध को पराजित कर मार डाला। पार्श्वनाथ की उक्त प्रतिमा वहीं (शंखपुर में) स्थापित कर दी गई। कालान्तर में यह तीर्थ विच्छिन्न हो गया तथा बाद में यह प्रतिमा वहीं शंखकूप में प्रकट हुई और उसे चैत्य निर्मित कर वही स्थापित कर दी गई। इस तीर्थ में अनेक चमत्कारिक घटनाएँ हुईं। तुर्क लोग भी यहाँ उपद्रव नहीं करते हैं।' जनप्रभसूर के पूर्व जैन तीर्थों का उल्लेख करने वाली जो रचनाएँ हैं, उनमें आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य के चूर्णि के काल तक अर्थात् सातवीं शताब्दी तक हमें कहीं भी शंखेश्वर तीर्थ का उल्लेख नहीं मिलता है। तीर्थ सम्बन्धी साहित्य में बप्पभट्टिसूरि की परम्परा में हुए यशोदेवसूरि के गच्छ के सिद्धसेनसूरि का 'सकलतीर्थस्तोत्र' प्राचीनतम है । यह रचना ई० सन् १०६७ की है। इसमें ५० से अधिक तीर्थों का उल्लेख हुआ है। किन्तु उस सूची में कहीं भी शंखपुर या शंखेश्वर तीर्थ का उल्लेख नहीं है, जबकि शत्रुंजय, गिरनार, मोढेरा, भृगुकच्छ आदि गुजरात के अनेक तीर्थ उसमें उल्लेखित हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि उस काल में शंखेश्वर तीर्थ की प्रसिद्धी नहीं रही होगी । किन्तु विविधतीर्थकल्प (इ०स० १३३२) में जिन तीर्थों का उल्लेख हुआ है, उनमें शंखपुर का उल्लेख है। साहित्यिक साक्ष्य की दृष्टि से शंखपुर अर्थात् शंखेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ का यह प्राचीनतम उल्लेख है। इससे पूर्व का कोई भी साहित्यिक उल्लेख हमें प्राप्त नहीं है। सिद्धसेनसूरि के सकलतीर्थ ( ई० सन् १०६७) और जिनप्रभसूरि के विविध तीर्थकल्प (ई०सन् १३३२ ) के मध्य अष्टोत्तरी तीर्थमाला नामक महेन्द्रसूरि कृत एक अन्य कृति भी मिलती है, जो वि०सं० १२४१ की रचना है चूँकि यह कृति हमें उपलब्ध नहीं हो सकी, इसलिए उसमें शंखेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ का उल्लेख है या नहीं यह कहना कठिन है । किन्तु यह निश्चित है कि विविधतीर्थकल्प के समय अर्थात् ई० सन् १३३२ में यह तीर्थ अस्तित्व में था। साथ ही इसकी तीर्थ रूप में प्रसिद्धि भी थी, तभी तो उन्होंने इस तीर्थ पर स्वतंत्र कल्प की रचना की । ऐतिहासिक दृष्टि से जिनप्रभसूरि के विविधतीर्थकल्प के पश्चात् उपकेशीगच्छ के कक्कसूरि रचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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