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________________ शंखेश्वर तीर्थ का इतिहास : १०१ विभाग किए गए हैं - १. द्रव्यतीर्थ एवं २. भावतीर्थ। इस क्रम में भावतीर्थ को जंगम-तीर्थ एवं द्रव्यतीर्थ को स्थावर-तीर्थ भी कहा गया है। सद्गुण और उन सद्गुणों के धारक साधु-साध्वी आदि जंगम-तीर्थ हैं और तीर्थंकरों की कल्याणक भूमि आदि स्थावर तीर्थ हैं। दूसरे शब्दों में धर्म की साधना करने वाला चतुर्विध संघ जंगम-तीर्थ है और तीर्थंकरों की कल्याणक भूमि आदि स्थावर-तीर्थ हैं। एक अन्य दृष्टि से तीर्थों के दो भेद बताए गए हैं - (१) निश्चय-तीर्थ और (२) व्यवहार-तीर्थ। सम्यक्त्व एवं पाँच महाव्रतों की साधना से विशुद्ध आत्मा निश्चय-तीर्थ है और उन मुक्त जीवों के चरण कमलों से स्पर्शित शत्रुजय, गिरनार, पावा आदि भी कर्मक्षय का निमित्त कारण होने से व्यवहार-तीर्थ हैं। जैनधर्म में द्रव्य या स्थावर तीर्थों की अवधारणा का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। सर्वप्रथम तीर्थंकरों के कल्याणक क्षेत्रों को तीर्थ के रूप में स्वीकार किया गया। उसके पश्चात् विशिष्ट मुनियों और साधकों के निर्वाण स्थल भी तीर्थ के रूप में मान्य किए गए और उन्हें निर्वाण क्षेत्र कहा गया, अन्त में विशिष्ट चमत्कारों से युक्त जिनबिम्ब और कलात्मक दृष्टि से बने जिनचैत्य भी तीर्थ कहलाए, इन्हें अतिशय क्षेत्र कहा गया - इस प्रकार तीर्थों का विभाजन तीन रूपों में हुआ १. कल्याणक क्षेत्र २. निर्वाण क्षेत्र और ३. अतिशय क्षेत्र। जब हम तीर्थों के इन तीन रूपों के आधार पर शंखेश्वर तीर्थ पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि शंखेश्वर तीर्थ निश्चित रूप से कल्याणक क्षेत्र नहीं है और न यह किसी विशिष्ट महापुरुष का निर्वाण या साधना स्थल के रूप में तीर्थ है। वैसे तो ढाई द्वीप की एक इंच भी भूमि ऐसी नहीं है जहाँ से कोई मुक्त नहीं हुआ हो, किन्तु ये सभी तीर्थ भूमि नहीं हैं। शंखेश्वर तीर्थ को एक अतिशय क्षेत्र के रूप में ही प्राचीन काल से मान्यता प्राप्त है। शंखेश्वर तीर्थ की प्रसिद्धि मूलतः वहाँ के पार्श्वनाथ भगवान के जिनबिम्ब के अतिशयों (चमत्कारिता) के कारण ही रही है। शंखेश्वर तीर्थ का इतिहास शंखेश्वर तीर्थ के इतिहास की दृष्टि से हम विचार करें तो इस तीर्थ के महत्त्व का सर्वप्रथम उल्लेख जिनप्रभसूरि के 'विविधतीर्थकल्प' नामक ग्रन्थ में मिलता है। जिनप्रभसूरि ने ई० सन् १३३२ में इस ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ में शंखेश्वर पार्श्वनाथ कल्प नामक विभाग में इस तीर्थ का विवरण निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है - 'पूर्व काल में एक बार राजगृह नगरी के राजा नौवें प्रतिवासुदेव जरासंध ने नौवें वासुदेव कृष्ण पर चढ़ाई करने के लिए पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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