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________________ शंखेश्वर तीर्थ का इतिहास जैन धर्म तीर्थंकर प्रणीत है। तीर्थंकर उसे कहा जाता है, जो तीर्थ की स्थापना करता है। तीर्थंकर द्वारा स्थापित तीर्थ धर्मतीर्थ कहलाता है। वस्तुतः शाब्दिक दृष्टि से 'तारयति इतितार्थ इस व्युत्पत्ति के आधार पर तीर्थ शब्द उस स्थल के लिए प्रयुक्त होता है, जहाँ से नदी, समुद्र आदि के पार जाया जाता है। इस मूल अर्थ की दृष्टि से धर्म के क्षेत्र में तीर्थ का आशय है - जिसके द्वारा साधक संसाररूपी समुद्र को पार कर मोक्षरूपी लक्ष्य को प्राप्त करता है। इस प्रकार जैनाचार्यों की दृष्टि में तीर्थ वह है, जो व्यक्ति को संसार समुद्र से पार कराता है और ऐसे तीर्थों की स्थापना करने वाले तीर्थंकर कहलाते हैं। इस प्रकार मोक्षमार्ग को ही तीर्थ कहा गया है। आवश्यकनियुक्ति में तीर्थ, श्रुतधर्म, साधनामार्ग, प्रावचन एवं प्रवचन - इन पाँचों को पर्यायवाची कहा गया है (१/३०)। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रारम्भ में जैन परम्परा में तीर्थ शब्द केवल नदी तट, पवित्र या पूज्य स्थल के रूप में प्रयुक्त न होकर एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा में साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका - इस चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा गया है और इस चतुर्विध धर्मसंघ की स्थापना करने के कारण अर्हत् परमात्मा को तीर्थंकर कहा गया है। धर्मसंघ को तीर्थ इसलिए कहा जाता है कि वह संसार सागर से पार उतारने में सहायक है। उत्तराध्ययनसूत्र में ब्रह्मचर्य को भी शान्तितीर्थ की उपमा से उपमित किया गया है और कहा गया है कि धर्मरूपी सरोवर एवं ब्रह्मचर्यरूपी शान्तितीर्थ में स्नान कर आत्मा निर्मल एवं विशुद्ध हो जाती है। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि द्रव्यतीर्थ तो मात्र बाह्य मल या शरीर की शुद्धि करते हैं अथवा नदी, समुद्र आदि के तटरूपी तीर्थ व्यक्ति को उस पार पहुँचाने में सहायक होते हैं, वे वास्तविक तीर्थ नहीं हैं जो जीव को संसार समुद्र से पार पहुँचाते हैं, इसीलिए धर्मसंघ और साधना-मार्ग को तीर्थ कहा गया है। वस्तुतः तीर्थ तो वह है जो आत्मा के मल को धोकर उसे संसाररूपी सागर से पार कराये। शब्दकल्पद्रुम में भी तीर्थ शब्द की इसी प्रकार की आध्यात्मिक व्याख्या करते हुए कहा गया है कि सत्य, क्षमा, इन्द्रिय-निग्रह, करुणा-वृत्ति, चित्त की सरलता, दान, संतोष, ब्रह्मचर्य, प्रियवचन, ज्ञान, धैर्य और पुण्य कर्म ये सभी तीर्थ हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से उन सभी सद्गुणों को तीर्थ कहा गया है, जो व्यक्ति को मुक्ति की ओर ले जाते हैं। वे क्षेत्र या भूमियाँ जो व्यक्ति को मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने में प्रेरक या सहायभूत होती हैं, द्रव्यतीर्थ कहलाती हैं। इसी आधार पर जैन परम्परा में तीर्थ के दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001787
Book TitleJain Dharma Darshan evam Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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