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तक के अनेक लेख इस मंदिर परिसर में उपलब्ध हुए हैं। इनमें २८ लेखों में काल निर्देश हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि ई० सन् १५९८-१६४२ तक इस जिनालय का जीर्णोद्धार होता रहा था।
___ वर्तमान जिनालय में प्रतिष्ठित प्रतिमाओं, देहरिओं और परिकरों आदि में जो लेख उत्कीर्ण हैं, वे ई० सन् १९५८ से लेकर १८४० तक के हैं। इस आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह तीर्थ ई० सन् ११५८ में अस्तित्व में आ गया होगा। इसका अंतिम जीर्णोद्धार ई० सन् १७०४ में विजयप्रभसूरि के पट्टधर विजयरत्न सूरीश्वर जी की प्रेरणा से हुआ। वर्तमान में भी इस मन्दिर के सौन्दर्य में युगानुरूप वृद्धि हो रही है।
इस प्रकार पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर इस शंखेश्वर तीर्थ का अस्तित्व ई० सन् की १२वीं शती (ई० सन् ११०० से ११५८) तक जाता है। जहाँ तक साहित्यिक साक्ष्यों का प्रश्न है ई० सन् १३३२ के पूर्व के नहीं हैं। अतः इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह तीर्थ ई०सन् की बारहवीं शती में अस्तित्व में आ गया था। यदि हम मूलनायक शंखेश्वर पार्श्वनाथ बिम्ब के प्रतिमा के लक्षणों पर विचार करते हैं, तो भी यह प्रतिमा ई० सन् की बारहवीं शती के लगभग की ही सिद्ध होती है। यद्यपि परम्परागत मान्यताएँ तो इसे अरिष्टनेमि के काल की मानती हैं, किन्तु यह तो आस्था का प्रश्न है, मैं इस पर कोई प्रश्नचिह्न खड़ा करना नहीं चाहता। क्योंकि परम्परा के अनुसार अरिष्टनेमि का चिह्न शंख है तथा वासुदेव के प्रतीक चिह्नों में एक शंख भी है। अतः शंख चिह्न के धारक शंखेश्वर और उनके आराध्य पार्श्वनाथ शंखेश्वर पार्श्वनाथ के नाम से अभिहित हुए- इस कथानक के आधार पर परम्परा इस तीर्थ को अरिष्टनेमि कालीन मानती है। यह आस्था अनुभूति जन्य है और एक आस्थाशील व्यक्ति के लिए तो अनुभूति ही प्रमाण होती है।
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