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________________ Jaina Sahitya aur Mahākāla-Mandira ज्ञात होते हैं। इसका कारण एक तो यह हो सकता है कि जिन ग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत दिगम्बर ग्रन्थ रचे हुऐ हैं, वे (जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है ) आराधनासाहित्य की कृतियाँ थीं, जिनका उद्देश्य पूर्वोक्त श्वेताम्बर ग्रन्थों की भाँति औपदेशिक या व्याख्याकारक नहीं, किन्तु साधुमरण आदि से सम्बन्ध रखने वाले क्रियाकाण्ड के विषय में दृष्टान्त सहित सूचनाएँ ही देने का था। एक समाधिमरण विशेष के ऐसे एक दृष्टान्त ही के रूप में वहाँ ( पइण्णों में जैसे ) अवन्तिसुकुमाल की मृत्यु मात्र के संक्षिप्त उल्लेख को स्थान दिया जा सका, न कि उसके पूरे विवरण को । इस कारण से श्री हरिषेण आदि दिगम्बर ग्रन्थकारों को प्रस्तुत महात्मा के समाधि - मन्दिर के सम्बन्ध का कोई उल्लेख मूलग्रन्थों में नहीं मिला होगा। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त ग्रन्थकारों ने कदाचित् इस कारण से भी उसकी उपेक्षा की होगी कि सिद्धसेन दिवाकर ( देखिए, सन्मति - तर्क, भूमिका, पृ० 159 ) एक श्वेताम्बराचार्य थे, और उक्त स्मारक मन्दिर की जो पार्श्वनाथ- प्रतिमा उनके प्रभाव से प्रादुर्भूत और पुनः प्रतिष्ठित हुई, वह एक महान् श्वेताम्बर तीर्थ का केन्द्र स्थान बन गई थी, जैसा कि आगे बताया जावेगा । 243 ऐसा भी हो सकता है कि उक्त मन्दिर कवि-कल्पना शक्ति या लोकमनोगति की एक कृति थी, जिसको केवल श्वेताम्बर वृद्ध - परम्परा में ही स्थान मिल गया । अवन्तिसुकुमाल की कहानी के भिन्न-भिन्न रूपों में अनेक भिन्नताएँ इसी मनोगत के परिणामस्वरूप विदित होती हैं। महामुनि की माता का नाम भद्रा, सुभद्रा और यशोभद्रा, उनके गुरु का नाम आर्य सुहस्ती, गणधराचार्य और जिनसेन, उनके मन्दिर की बनाने वाली उनकी माता, उनका पिता और उनका पुत्र कथित हैं, इत्यादि उसके उदाहरण प्रत्यक्ष विद्यमान हैं। अतः उपर्युक्त शंका को भी यहाँ स्थान देना उचित है, परन्तु इसका निर्णय अब आगे अवन्तिसुकुमाल का वृत्तान्त सुनने वाले विक्रमादित्य की ओर तथा मूर्ति के प्रादुर्भाव के परिणाम की ओर कुछ ध्यान देने के पश्चात् किया जा सकेगा। ( 4 ) महाकालवन में कुडंगेश्वर जैन तीर्थ जिस मूर्ति और उसके मन्दिर के इतिहास में पूर्वोक्त प्रकरणों में उतरना पड़ा, उसके प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में पूर्वोल्लिखित दिगम्बरीय स्तोत्रों, श्वेताम्बरीय सज्झायों और 'पुरातन - प्रबन्ध संग्रह' में संक्षिप्त उल्लेख मात्र हैं । शेष ग्रन्थों में विवरण के साथ उस चमत्कार के दो परिणाम कथित हैं। पहला परिणाम यह है कि राजा विक्रमादित्य जैनधर्मानुरक्त अथवा जैन ही बन गए । 'प्रभावक-चरित' और 'सम्यक्त्व - सप्ततिका टीका' के अनुसार वे जैनधर्म में प्रतिबोध पाकर जैनधर्मानुरक्त हुए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001785
Book TitleCharlotte Krause her Life and Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages674
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_English, Biography, & Articles
File Size11 MB
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