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________________ Jaina Sāhitya aur Mahākāla-Mandira 237 अर्थात् “गर्भवती से उत्पन्न हुए पुत्र ने अवन्तिसुकुमाल के मरणस्थान पर एक बड़ा देवमन्दिर बनाया ।। 176 ।। __वह देवमन्दिर आज भी अवन्ति का भूषणरूप विद्यमान है और उसकी प्रशंसा महाकाल के नाम से आज भी जगत् में ऊँचे स्वर से होती रहती है ।। 177 ।।" श्री हेमचन्द्रसूरि के समकालीन श्री सोमप्रभसूरि विरचित 'कुमारपालप्रतिबोध (ई. सन् 1185) में भी अवन्तिसुकुमाल की कथा संस्कृत पद्य में और 'परिशिष्टपर्वन' के अनुरूप पाई जाती है। उसके अनुसार 5 अवन्ति-सुकुमाल की बत्तीसवीं पत्नी के पुत्र द्वारा बनाए हुए मन्दिर में महात्मा की प्रतिमा स्थापित हुई। उस मन्दिर को 'अवन्ति का अलंकार' कहा जाता है, जो कि “अपने शिखर के अग्रभाग द्वारा सूर्य के रथ के घोड़ों का मार्ग रोकता हुआ आज भी 'महाकाल' नाम से प्रसिद्ध इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि ईसा की बारहवीं शताब्दी के अन्त पर्यन्त 'महाकाल-मन्दिर' विद्यमान था। इतना ही नहीं, उसकी महिमा कालिदास के समय से इतनी शताब्दियों तक अक्षुण्ण रही थी और कालिदास के समय से तब तक महाकालेश्वर की आरती का गर्जनासदृश दुन्दुभिनाद आकाश को प्रतिध्वनित करता रहा था। ___ परन्तु यह महिमा आगे नहीं रही, ऐसा श्री हेमचन्द्रसूरि और श्री सोमप्रभसूरि के पश्चात् के साहित्य से ज्ञात होता है। इस साहित्य का सिंहावलोकन करने पर पहली दृष्टि संस्कृत गद्यबद्ध 'पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह' तथा 'प्रबन्ध-चिन्तामणि' नाम के ग्रन्थों पर पड़ती है। इनमें श्री अवन्तिसुकुमाल के सम्बन्ध में इतना ही उल्लेख है कि जिस मन्दिर में श्री सिद्धसेन के स्तोत्र-पाठ से श्रीपार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई, वह अवन्तिसुकुमाल का उनकी बत्तीस पत्नियों द्वारा बनवाया हुआ स्मृति-मन्दिर था, और उक्त चमत्कार होने के पश्चात् 'तदा प्रभृति गूढमहाकालोऽजनि', अर्थात् 'उस समय से गूढ़ महाकाल हुआ। _ 'प्रबन्ध चिन्तामणि' ई. सन् 1305 में और 'पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह' भी लगभग उसी समय में रचित है। अर्थात् उपर्युक्त वाक्य ऐसे समय में लिखा गया है जबकि श्री हेमचन्द्रसूरि और श्री सोमप्रभसूरि के महत्त्वपूर्ण वर्णन के रचनाकाल से लगभग सवा शताब्दी बीत गई थी। इतने समय में 'अवन्तिभूषणरूप' गगनचुम्बी महाकाल-मन्दिर मिट गया और 'गूढ़ महाकाल' ने उसका स्थान ले लिया था जिसकी पूजा-आरती आदि भूमि-गृह ही में होती रही। इसका कारण अति स्पष्ट है। इस सवा शताब्दी ही के अन्दर अल्तमश का कालरात्रि-सदृश समय मालव-भूमि पर छा गया था और इसी कालरात्रि में ही ई. सन् 1235 में महाकाल का विख्यात मन्दिर भूमिसात् हुआ था। वह इतिहास-प्रसिद्ध है। अतः विस्तार अनावश्यक है। लगभग उसी समय के महामालवन में एक जिनालय भी विद्यमान था जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001785
Book TitleCharlotte Krause her Life and Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages674
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_English, Biography, & Articles
File Size11 MB
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