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________________ Jaina Sāhitya aur Mahākāla-Mandira 231 थी। मात्र 'विविधतीर्थकल्प' में 'नाभिसूनु', 'नाभेय' इत्यादि प्रथम तीर्थङ्कर श्रीऋषभदेव के नामान्तर पाए जाते हैं। इस भिन्नता का कारण यह हो सकता है कि मूल कहानी में श्रीपार्श्वनाथ ही की मूर्ति का प्रार्दुभाव कथित हुआ होगा जिनके नामान्तर 'वामासूनु', ‘वामेय' इत्यादि श्री जिनप्रभ सूरि के आधारभूत मूल-ग्रन्थ की आदर्श प्रति में लेखक की भूल से 'नाभिसूनु, 'नाभेय' आदि में परिवर्तित किये गए और इस भूल के परिणामस्वरूप शेष परिवर्तन पिछली प्रतियों में क्रमशः आ पड़े होंगे। ऐसा अनुमान करने में कुछ आपत्ति दिखाई नहीं देती। इसके विपरीत यह अनुमान इस विचार से विशेष न्याययुक्त जान पड़ता है कि 'विविधतीर्थकल्प' की 'अ' संज्ञक आदर्श-प्रति में दी हुई तीर्थकल्पों की अनुक्रमणिका में (जिनविजयजी, पृ. 111 ) प्रस्तुत तीर्थकल्प ( नं. 47 ) का नाम 'कुडुंगेश्वरनाभेयदेवकल्प' के स्थान पर साफ-साफ 'श्रीकुडुंगेश्वरपार्श्वनाथ' ही उपलब्ध इसके अतिरिक्त 'विविधतीर्थकल्प' में चौरासी जैन महातीर्थों के नामों की एक सूची चौबीस तीर्थङ्करों के कालक्रम से दी गई है ( जिनविजयजी, पृ. 85 )। इस नामसंग्रह में प्रथम तीर्थङ्कर के तीर्थस्थानों की नामावली में न तो कुडुंगेश्वर और न उज्जैन ही का उल्लेख है, किन्तु तेईसवें तीर्थङ्कर श्रीपार्श्वनाथ की तीर्थसूची में 'महाकालान्तरपातालचक्रवर्ती' (जिनविजयजी के मूल का पाठ 'महाकालान्तरा.') ऐसा नाम पाया जाता है। इससे भी उपर्युक्त अनुमान का कुछ समर्थन होता है कि प्रस्तुत बिम्ब, जो कि बाद में एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान का केन्द्र बना, श्रीआदिनाथ का नहीं, किन्तु वास्तव में श्रीपार्श्वनाथ का ही था। प्रस्तुत अनुमान के साथ यह बात भी भलीभाँति मेल खाती है कि महादेव का आभूषणरूप माना हुआ सर्प पार्श्वनाथ का भी 'लाञ्छन' अर्थात् चिह्नविशेष है, और पार्श्वनाथ का शासनदेवता-युगल धरणेन्द्र-पद्मावती नागदेवताओं का रूप धारण करते हुए कल्पित होते हैं। तदनुकूल प्रस्तुत प्रसंग में भी एक सर्पचिह्न का उल्लेख 'प्रभावकचरित' में (पृ. 60 पद्य 152 ) दिया गया है। यथा : शिवलिंगादुदैच्चात्र कियत्कालं फणावलिः । लोकोऽघर्षीच्च तां मश्चान्मिथ्यात्वदृढरंगमः ।। 152 ।। (मूल में 'लोकोऽघर्षीच्च' के स्थान पर 'लोकोऽघर्षच्च' पाठ है। ) अर्थात् "वहाँ शिवलिंग में से थोड़े समय में सर्पफणों की श्रेणी निकली। पश्चात् लोगों ने मिथ्यात्व की दृढ़ भावना से जल-सिंचन कर उसकी पूजा की" ।। 152 ।।। ____ आज भी एक रत्नचक्षुमय सर्प महाकाल लिंग के चतुर्दिक् चाँदी के पत्रों से ढंकी हुई जलाधारी में देखा जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001785
Book TitleCharlotte Krause her Life and Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages674
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_English, Biography, & Articles
File Size11 MB
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