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________________ आर्य सुधर्मा से लोकाशाह तक ८१ षडुलूक रोहगुप्त। आगे चलकर इनसे कुछ गण और शाखायें निकली जिसकी चर्चा हम आर्य सुहस्ति के पश्चात् करेंगे। आर्य सुहस्ती आर्य सुहस्ती के जीवनवृत्त के विषय में भी कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है। 'कल्पसूत्र' स्थविरावली के अनुसार वे आर्य स्थलिभद्र के पास दीक्षित हये। इस प्रकार वे आर्य महागिरि के गुरुभ्राता थे, किन्तु दोनो गुरु भ्राताओं में साम्भोगिक सम्बन्ध नहीं रहे। आर्य महागिरि जहाँ जिनकल्प और कठोर आचार के परिपालक थे वहाँ आर्य सुहस्ती युगानुरूप स्थविरकल्प के पक्षधर थे और यही कारण रहा कि अनेक पट्टावलियों में आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती को समकालिक आचार्य माना गया है। यद्यपि दोनों में आचार विषयक प्रश्नों पर मतवैभिन्न्य था, फिर भी आर्य महागिरि को गुरु तुल्य मानते हुये आर्य सुहस्ति उन्हें प्रमुखता देते रहे । आर्य महागिरि के शिष्य स्थविर उत्तर और स्थविर बलिस्सह से उत्तर बलिस्सह नामक गण निकला । इस गण की चार शाखायें हई- कौशम्बिका, सौमित्रिका, कौटुम्बिनी और चन्द्रनागरी । आर्य महागिरि के अन्य शिष्य आर्य षडुलक रोहगुप्त से त्रैरासिक शाखा निकली । आर्य महागिरि के शिष्यों से निकली उत्तर बलिस्सह गण की चार शाखाओं तथा षडुलक की त्रैरासिक शाखा की आगे क्या स्थिति रही इसका उल्लेख हमें कल्पसूत्र की स्थविरावली में नहीं मिलता है, किन्तु 'नन्दीसूत्र' में जो वाचकवंश की परम्परा दी गयी है उसमें आर्य बलिस्सह से आगे की परम्परा इस प्रकार बतायी गयी है- आर्य स्वाति, आर्य श्याम, आर्य शांडिल्य, आर्य समुद्र और आर्य मंग। इससे ऐसा लगता है कि आर्य महागिरि के शिष्य आर्य बलिस्सह की यह शाखा स्वतंत्र रूप ये चलती रही। कुछ आचार्यों ने आर्य बलिस्सह के बाद आर्य गुण सुन्दर का नाम दिया है। किन्तु गुणसुन्दर का उल्लेख आर्य सुहस्ती के शिष्य के रूप में भी मिलता है। वहाँ यह बताया गया है कि मेधगणि, गुणसुन्दर, गुणाकर और धनसुन्दर ये मेधगणि के ही अन्य नाम हैं। अत: गुणसुन्दर आर्य सुहस्ती की परम्परा के रहे हैं। आर्य सुहस्ती के बारह प्रमुख शिष्य थे- आर्य रोहण, आर्य भद्रयश, आर्य मेघगणि, आर्य कामर्द्धि, आर्य सुस्थित, आर्य सुप्रतिबुद्ध, आर्य रक्षित, आर्य रोहगुप्त, आर्य ऋषिगुप्त,आर्य श्रीगुप्तगणि, आर्य ब्रह्मगणि और आर्य सोमगणि। इनमें काश्यप गोत्रीय आर्य रोहण से उद्देहगण निकला । इस गण से चार शाखायें और छ: कुल निकले। उद्देहगण की चार शाखायें निम्न हैं- औदुम्बरीया, मासपूरिका, मतिपत्रिका और सुवर्णपत्रिका। छ: कुलो के नाम इस प्रकार हैं- नागभूतिक, सोमभूतिक, आर्द्रकच्छ, हस्तलीय, नान्दिक और परिहासक। इनके ही एक अन्य शिष्य हारित गोत्रीय स्थविर श्रीगुप्त से वारण गण निकला । इस गण से चार शाखाएं और सात कुल निकले। चार शाखायें निम्न हैं- हारितमालागारिक, संकाशिका, गवेधुका और वज्रनागरी । सात कुल हैं- वत्सलीय, प्रीतिधर्मक, हरिद्रक,पुष्पमित्रक, माल्यक, आर्य चेटक और आर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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