SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान ऋषभदेव से महावीर तक ११. प्रभास, जिनके मन में मुक्ति विषयक शंका थी। शंका समाधान के पश्चात् उन्होंने अपने ३०० शिष्यों के साथ महावीर के शिष्यत्व को स्वीकार कर लिया। आपके धर्म परिवार में ११ गणधर, ७०० केवली, ५०० मन: पर्यवज्ञानी, १३०० अवधिज्ञानी, ७०० वैक्रियलब्धिधारी, ३०० चतुर्दशपूर्वी, ४०० वादी, १४००० साधु, ३६००० साध्वी, १५९००० श्रावक और ३१८००० श्राविकायें थीं। आपका निर्वाण परम्परागत मान्यतानुसार ई०पू० ५२७ में मध्यमा पावा में हस्तिपाल राजा की रज्जुकशाला में कार्तिक वदि अमावस्या को हुआ। कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा को प्रात:काल गौतम स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ और श्वेताम्बर परम्परानुसार आर्य सुधर्मा को संघशास्ता नियुक्त किया गया। सन्दर्भ 1. Mohanjodaro and the Indus civilination, p. 52-53. २. Modern view. Aug. 1932, pp. 155-160. ३. आजकल, मार्च १९६२ पृ०-८ ४. ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहितम् । हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम् ।। ऋग्वेद, १०/१६६/१ ५. चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्तासो अस्य विधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मात्या आ विवेश ।। वही, ४/५८/३।। ६. शतयाजं स यजते, नैन दुन्वन्त्यग्नयः जिन्वन्ति विश्वे । त देवा यो ब्राह्मण ऋषभमाजुहो ति । अथर्ववेद, ९/४/१८॥ ७. इह इक्क्ष्वाकुकुलवंशोद्भवेन नाभिसुतेन मरुदेव्या नन्दनेन । महादेवेन ऋषभेण दस प्रकारो धर्मः स्वयमेव चीर्णः।। ब्रह्माण्डपुराण नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं मरुदेव्या महाद्युतिम् । ऋषभं पार्थिव श्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ।। वही, १४/५३ ८. अष्टमे मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः। दर्शयन् वर्त्म धीराणां, सर्वाश्रमनमस्कृतम् ॥ श्रीमद्भगवद १/३/१३॥ ९. उसणे णाम अरहा कोसलिए पठमराया, पठमजिणे, पठमकेवली, पठमतित्थयरे पठमधम्मवर चक्कवट्टी समुप्पज्जित्थे । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २/३० १०. ऋषभदेव : एक परिशीलन, पृ०-१३० । ११. तत: प्रभृति सोद्वाहस्थिति: स्वामिप्रवर्तिता। प्रावर्तत परार्थाम महतां हि प्रवृत्तय । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १/२/८८१ १२. आवश्यकनियुक्ति, १/१९१-१९७ १३. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १/२/९२५-९३२ १४. स्थानांगवृत्ति, ७/३/५५७ १५. लेहं लिवीविहाणं जिणेणं बंभीए दाहिण करेणं । आवश्यकनियुक्ति, २१२ १६. गणियं संखाण सुन्दरीए वामणे उवट्ठइ। वही, तथा माणुम्माणवमाणपमाणं गणिमाई वत्थूणं। वही, २१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy